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Tuesday, October 27, 2015

साप्ताहिक उपग्रह/स्वतंत्रता दिवस अंक/सुनते रहिये../ बीते जमाने के सिनेमाघर

साप्ताहिक उपग्रह के स्वतंत्रता दिवस अंक में 

सुनते रहिये.. 
बीते जमाने के सिनेमाघर 

एकता कानूनगो बक्षी
एक वह भी समय था जब मनोरंजन का मुख्य साधन फिल्म ही हुआ करती थी। शहर के सिनेमा घर आकर्षण के केंद्र हुआ करते थे। तब जब कि बालकनी का टिकट दो ढाई रुपए का आता था, फिल्में देखने जाना बड़ी बात हुआ करती थी। छात्र-छात्राएं तो स्कूल कालिज से गायब होकर सस्ती दरों वाली टिकट लेकर सिनेमा देखते थे। ज्यादातर सिनेमाघर बहुत अच्छे नहीं होते थे। कुछ की सीटें तो फटी होती थीं व उसमें खटमल तक होते। सिनेमाघरों की भी अपनी अलग कहानी है। आपने भी जरूर सिनेमा घर में खूब फ़िल्में देखीं होंगी...अब भी देखते होंगे ..अब तो बड़े बड़े मल्टीप्लेक्स और सिनेप्लेक्स हो गए हैं. जिनमें एशो आराम के साथ फिल्मों का मजा लिया जा सकता है..लेकिन बीते जमाने की बात ही कुछ और थी..रेनबो हैदराबाद पर प्रसारित होने वाले लोकप्रिय कार्यक्रम 'दिल की बात ' का मेरा विषय भी यही था . श्रोताओं से मैंने बात की बीते जमाने के सिनेमा घरों और उनके अनुभवों के बारे में. मैंने उनसे कहा -ज़रा बताइये हमें उन दिनों के बारे में जब हम सबसे पहले किसी टॉकीज में फिल्म देखने गए थे... वही यादें ..वो प्यारे सपनीले अनुभव हमसे शेयर कीजिये... टोकिजों की बातें बताइये. बहुत मजेदार और रोचक जानकारियाँ मिलीं.
फिल्मों के लोकप्रिय और सिनेमाघरों में धूम मचाने वाले सदाबहार गीतों को मैंने अपने कार्यक्रम के लिए उस दिन के लिए विशेषरूप से चुना था. मुगले आजम का'प्यार किया तो डरना क्या..' और , मदर इंडिया का 'ओ गाडीवाले गाडी धीरे हांक रे..' गीतों को सुनाने के बाद एक श्रोता का काल लिया तो उन्होंने बहुत उत्साह से कहा मैडम उन दिनों की बात ही कुछ और थी. सिनेमाघर में ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को आकर्षित करने के लिए फिल्मों का प्रचार बहुत जोरदार ढंग से किया करते थे. सिनेमा के पोस्टर तांगे और बैलगाड़ियों में माइक लगाकर उसे बाजारों ओर मोहल्लों में घुमाया जाता था . इतना ही नहीं, इसके साथ एक व्यक्ति जोकरों जैसे कपड़े पहने और हाथ में भोंपू लिए सिनेमा के कलाकारों और कहानी के बारे में एलान करता हुआ आगे-आगे चलता था। साथ ही दो पहियों वाली खास ट्राली भी घुमाई जाती थी जो संकरी गलियों में भी ले जाई जा सकती थी।' मुझे लग रहा था की वे श्रोता शायद अतीत में खो गए थे . दूसरे श्रोता से बात करने के लिए मैंने उनकी आवाज को फेड आउट करते हुए 'राम और श्याम ' का गीत बजा दिया..आई हैं बहारे देखो..
अगले कोलर कभी सिनेमा घर के बाहर चाय और समोसे का स्टॉल लगाया करते थे. उन्होंने 'जोनी मेरा नाम' फिल्म के गीत की फरमाइश की. मैंने उन्हें गीत सुनाने को आश्वस्त किया और अपने विषय पर सिनेमा घरों से जुड़े उनके व्यवसाय पर कुछ कहने को कहा .उन्होंने बताया- मैडम, सिनेमाघर के बाहर बहुत रौनक होती थी उन दिनों . चाय और पान की दुकानों की उपस्थिति जैसे अनिवार्य बन गई थी । सिनेमाघरों से जुड़ा दूसरा अहम धंधा बना था साइकिल स्टैंड। सिनेमा देखने आने वालों के लिए कस्बों और शहरों में तब यही सर्वाधिक सुलभ साधन हुआ करता था। इसके अलावा दर्शकों में सिनेमा की दीवानगी को देखते हुए जो फिल्म दिखाई जाती थी उसके गीतों की पुस्तकें भी सिनेमाघरों में बेची जाती थीं. इंटरवल के दौरान गीतों की किताब जिनमें संक्षेप में फिल्म की कहानी भी लिखी होती थी आवाज़ लगाकर बेची जाती थी।
यह भी बड़ा दिलचस्प था जब एक श्रोता ने बताया कि उसने केवल मेलों में ही जाकर फ़िल्में देखीं थी. सिनेमाघरों में तो बस वे पोस्टर और वहाँ लगे रंगीन चित्रों को ही देख लिया करते थे. चार आने का टिकिट खरीदना भी उनके लिए मुश्किल हुआ करता था. यदा-कदा उसका इंतजाम हो भी जाता था तो उसे ऊंचे दामों में ब्लेक में बेचकर थोड़ा-बहुत कमा लेते थे. उनका कहना बिलकुल सही भी था मैंने कहीं पढ़ा था और अपने पिताजी से सुना भी था कि उन दिनों सिनेमाघरों में आने वाली फिल्मों के खूबसूरत लुभावने नजारों की झलक फोटोग्राफ के जरिए दिखाने की भी परंपरा थी, जिन्हें लाबी कार्ड कहा जाता था। इन्हें देखने के लिए कोई पैसा खर्च नहीं करना पड़ता था, क्योंकि ये सिनेमाहाल के बाहर गैलरी में ही शीशे या जाली में कैद दिखाई पड़ जाते थे। अपने स्कूली दिनों में स्कूल से भाग कर इन लाबी कार्डों को देखना और उनके सहारे आने वाली फिल्म की कहानी का अनुमान लगाने वाले आज भी बड़ी संख्या में मौजूद होंगे।
एक श्रोता शायद ग्रामीण क्षेत्र के थे उनका कहना था कि गाँव में आने वाले टूरिंग टॉकीज में जमीन पर ट्रक के टायर पर बैठ कर मूंग फलियाँ खाते हुए सिनेमा का आनंद लिया करते थे. सच तो यह है आम आदमी के सिनेमाघरों की आज भी कमी है. भारत के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में सिनेमा हाल की उपस्थिति सदा से ही बहुत कम या न के बराबर ही रही है. लेकिन उन इलाकों में भी एक बड़ा दर्शक वर्ग तो था ही। ऐसे इलाकों के लिए टूरिंग टाकिजों हुआ करते थे . ये टाकिज अस्थायी रुप से तंबुओं या टीन की चादरों से तैयार किए गए कमरे नुमा हाल में चलते थे। ग्रामीण क्षेत्रों में लगने वाले मेलों में दर्शकों तक ये टूरिंग टाकिज सबसे बड़ा आकर्षण बने रहे। 
सिनेमाघरों के विकास से जुड़े पेशों के साथ एक गैरकानूनी पेशा भी उभरा ओर वह था टिकटों को ब्लैक करना। ये काम करने वाले लोग ब्लैकिए कहलाते थे। नई फिल्म आने पर टिकटों की काला बाजारी शुरु हो जाती थी। सिनेमाघरों में अपनी धाक जमाए रखना, शहर के दंबगों और छात्र नेताओं का सर्वाधिक प्रतिष्ठित शगल था, मुफ्त में फिल्म देखना दादागीरी की असली निशानी हुआ करती थी। 
मेरे कार्यक्रम में महिलाओं के भी बहुत कॉल आते हैं. मैंने जब उनसे अपना सवाल किया तो उन्होंने बताया की बीते जमाने में सिनेमाघरों में अलग से लेडिज क्लास हुआ करता था जिसमें बस औरतें और छोटे बच्चे ही प्रवेश पा सकते थे .तब बहुत कम स्त्रियां सिनेमा देखने आती थीं और उनके तथा उनके साथ आए परिवार के बैठने के लिए अलग से बाक्स की व्यवस्था की जाती थी। धार्मिक फिल्मों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ जब सिनेमाघरों में महिला दर्शकों की भी तादाद बढ़ी, तो उनके लिए हाल के एक हिस्से के बीच में परदा डाल कर विशेष व्यवस्था की जाने लगी, इसे सिनेमा दर्शकों के बीच महिलाओं के लिए आरक्षण का पहला कदम भी कहा जा सकता है।
दोस्तों, सिनेमाघरों से जुडी बातों का भरपूर मजा उस दिन मैंने और श्रोताओं ने लिया. और हाँ गाने तो वही थे जो आज भी श्रोताओं के दिलों पर राज करते हैं..धक्-धक् करने लगा... जब तक है जान मैं नाचूंगी...दीदी तेरा देवर दीवाना..... और भी बहुत से.... सुनते रहिये...पढ़ते रहिये... फिर मिलते हैं ....अगली बार...किसी और आम विषय के साथ...!
( अपने पापा के साथ एक ही प्रष्ठ पर प्रकाशित होने का सौभाग्य )

एकता कानूनगो बक्षी

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