बात
आज कल मैं कुछ नए-नए अनुभवों के दौर से गुजर रही हूँ। यहाँ हैदराबाद में वैसे हिंदी भाषी लोगों की कमी नही है। पर मुझे घर से बाहर निकल कर लोगों से दोस्ती करने का अभी पर्याप्त समय नहीं मिला है। मेरा सामना आज कल घर में काम करने वाली महरी और सिक्यूरिटी गार्ड से ही हो पा रहा है । महरी काफी कुछ हिंदी समझ लेती है पर वो वही समझती है जो वो समझाना चाहती है । और सिक्यूरिटी गार्ड पूरी तरह से तेलगु बोलता है और धाराप्रवाह तेलगु बोलता है . अक्सर ऐसा सन्योग बनता रहता है की हम जब तीनो इकट्ठे हो जाते हैं और बिना रुके तीनों अपनी-अपनी बाते करने लगते हैं वे दोनों तो बिना रुके तेलगु बोलते हैं और मैं भी पूरे जोश के साथ हिंदी .. ऐसे प्रसंगों पर मुझे बार बार 1957 में बनी गुरुदत्त जी की फिल्म प्यासा के गीत की ये पंकतियाँ बरबस याद आने लगती हैं--
'जाने क्या तूने कही ज्याने क्या मैंने सुनी बात कुछ बन ही गयी...'
तब लगता है वाकई इंसान के हाव भाव कितने जरूरी होते हैं जो यकायक एक ऐसी भाषा बन जाते हैं,जिससे अपने मतलब के काम बडी आसानी से सुलझते और निपटते जाते हैं।जो काम अक्सर बोलकर नही हो पाते या बने काम बिगड जाते हैं वे केवल चेहरे के भावों और एक अदद मुस्कराहट के कारण सफलता पूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं।
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