मैं मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की अत्यंत आभारी हूं कि उन्होंने मुझे पुनर्नवा पुरस्कार के योग्य समझा ।अब मुझे और बेहतर लिखने की प्रेरणा और बेहतर पढ़ने के लिए प्रयास करना होंगे।
बचपन से ही मुझे कविताएँ लिखने का शौक रहा है। घर में वातावरण भी लिखने पढ़ने का था। पापा भी अपने बचपन से लिखते छपते थे। हम बच्चों को लेकर भी उन्होंने कई कविताएँ और कहानियां लिखीं थीं।
अपनी स्कूल की नोट बुक में छोटी छोटी कविताएँ लिखती रहती थी। गुस्सा आता तो कविता लिखने लगती। दुख में भी जब उदास हो जाती तो चुपचाप टेबल पर जाकर कविता लिखने लगती। सबसे पहले मुझे याद है मैंने दुखी होकर कविता लिखी थी- दर्द को नींद नहीं आती। उस रात मुझे ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी।मम्मी को दिखाई वह कविता बाद में। उन्होंने पापा को मेरी डायरी ले जाकर बता दी। पापा शायद मन ही मन खुश तो हुए होंगे मगर उस वक्त उन्होंने मेरी कविता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। बोले अभी पढ़ाई करो। ये सब बाद में करना।
इस बीच कुमार अम्बुज अंकल घर आये तो पापा उन्हें कह रहे थे - एकता कविताएँ लिखती है। मैंने अवसर नहीं गंवाया और अपनी डायरी उन्हें ले जाकर दिखा दी। कुमार अम्बुज जी पापा के दोस्त हैं। बैंक में उनकी साहित्यिक संस्था 'प्राची' हुआ करती थी। अम्बुज अंकल नें बहुत रुचि से मेरी शुरुआती कच्ची पक्की कविताओं को पढ़ा । उन्होंने कहा कि तुममें संवेदनाएं हैं , कवि की तरह महसूस करती हो, लिख भी लेती हो। तुम लिखती रहो। बाद में इन्हें फिर से देखना, पढ़ना। कोशिश करती रहो,तुम अच्छी कविताएँ लिख सकोगी।
कुमार अम्बुज जी के इन शब्दों नें मुझे बहुत प्रोत्साहित किया है।
बाद में मैं अपनी पढ़ाई में लग गई। लेकिन थोड़ा थोड़ा लिखती रही। पापा और उनकी लाई किताबों में कविताएं पढ़ते हुए, उनसे बातचीत करते हुए,जो कुछ सीख पाई वही लिखती रही हूँ।
अपने ही घर,परिवार और आसपास की घटनाओं और लोगों को देखकर जो मन में विचार आते हैं, उन्ही को कविता में कहने का प्रयास करती हूँ।
कादम्बिनी,वीणा,और अन्य पत्र पत्रिकाओं में जो प्रकाशित हुआ उससे और लिखने की प्रेरणा मिली है। अपने ब्लॉग पर भी लिखती रहती हूँ।
आकाशवाणी में उद्घोषक के रूप में कार्य करने और वहां मिले रचनात्मक वातावरण के कारण भी कुछ नया लिखने की प्रेरणा मिलती रहती है।
कुछ कहानियां और लघुकथाएं भी लिखीं हैं। जनसत्ता में लगभग एक लेख प्रतिमाह स्थान पाता है।
कविता लिखने से ज्यादा अब मुझे बहुत सारी समकालीन कविताएँ और अन्य विधाओं में साहित्य पढ़ना जरूरी हो गया है। पुनर्नवा पुरस्कार का मान तभी होगा जब मैं अभी से कई गुना बेहतर कविताएँ लिख सकूं।
कोशिश यही रहेगी कि कम लिखूँ,पर बेहतर और सार्थक लिखूँ लेकिन ज्यादा से ज्यादा अच्छा पढ़ने पर अपने को केंद्रित कर सकूं।
बस, इतना ही। म प्र साहित्य सम्मेलन के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ । एक बार पुनः आप सभी का बहुत धन्यवाद।
सादर,
बचपन से ही मुझे कविताएँ लिखने का शौक रहा है। घर में वातावरण भी लिखने पढ़ने का था। पापा भी अपने बचपन से लिखते छपते थे। हम बच्चों को लेकर भी उन्होंने कई कविताएँ और कहानियां लिखीं थीं।
अपनी स्कूल की नोट बुक में छोटी छोटी कविताएँ लिखती रहती थी। गुस्सा आता तो कविता लिखने लगती। दुख में भी जब उदास हो जाती तो चुपचाप टेबल पर जाकर कविता लिखने लगती। सबसे पहले मुझे याद है मैंने दुखी होकर कविता लिखी थी- दर्द को नींद नहीं आती। उस रात मुझे ठीक से नींद भी नहीं आ पाई थी।मम्मी को दिखाई वह कविता बाद में। उन्होंने पापा को मेरी डायरी ले जाकर बता दी। पापा शायद मन ही मन खुश तो हुए होंगे मगर उस वक्त उन्होंने मेरी कविता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। बोले अभी पढ़ाई करो। ये सब बाद में करना।
इस बीच कुमार अम्बुज अंकल घर आये तो पापा उन्हें कह रहे थे - एकता कविताएँ लिखती है। मैंने अवसर नहीं गंवाया और अपनी डायरी उन्हें ले जाकर दिखा दी। कुमार अम्बुज जी पापा के दोस्त हैं। बैंक में उनकी साहित्यिक संस्था 'प्राची' हुआ करती थी। अम्बुज अंकल नें बहुत रुचि से मेरी शुरुआती कच्ची पक्की कविताओं को पढ़ा । उन्होंने कहा कि तुममें संवेदनाएं हैं , कवि की तरह महसूस करती हो, लिख भी लेती हो। तुम लिखती रहो। बाद में इन्हें फिर से देखना, पढ़ना। कोशिश करती रहो,तुम अच्छी कविताएँ लिख सकोगी।
कुमार अम्बुज जी के इन शब्दों नें मुझे बहुत प्रोत्साहित किया है।
बाद में मैं अपनी पढ़ाई में लग गई। लेकिन थोड़ा थोड़ा लिखती रही। पापा और उनकी लाई किताबों में कविताएं पढ़ते हुए, उनसे बातचीत करते हुए,जो कुछ सीख पाई वही लिखती रही हूँ।
अपने ही घर,परिवार और आसपास की घटनाओं और लोगों को देखकर जो मन में विचार आते हैं, उन्ही को कविता में कहने का प्रयास करती हूँ।
कादम्बिनी,वीणा,और अन्य पत्र पत्रिकाओं में जो प्रकाशित हुआ उससे और लिखने की प्रेरणा मिली है। अपने ब्लॉग पर भी लिखती रहती हूँ।
आकाशवाणी में उद्घोषक के रूप में कार्य करने और वहां मिले रचनात्मक वातावरण के कारण भी कुछ नया लिखने की प्रेरणा मिलती रहती है।
कुछ कहानियां और लघुकथाएं भी लिखीं हैं। जनसत्ता में लगभग एक लेख प्रतिमाह स्थान पाता है।
कविता लिखने से ज्यादा अब मुझे बहुत सारी समकालीन कविताएँ और अन्य विधाओं में साहित्य पढ़ना जरूरी हो गया है। पुनर्नवा पुरस्कार का मान तभी होगा जब मैं अभी से कई गुना बेहतर कविताएँ लिख सकूं।
कोशिश यही रहेगी कि कम लिखूँ,पर बेहतर और सार्थक लिखूँ लेकिन ज्यादा से ज्यादा अच्छा पढ़ने पर अपने को केंद्रित कर सकूं।
बस, इतना ही। म प्र साहित्य सम्मेलन के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ । एक बार पुनः आप सभी का बहुत धन्यवाद।
सादर,



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