जनसत्ता में मेरा लेख पढ़ें।
दुनिया मेरे आगे
सिनेमा के सहारे
एकता कानूनगो बक्षी
‘साहित्य और सिनेमा हमारे समाज का दर्पण है’ यह वाक्य हमे स्वतः ही विद्यालय में लिखे निबंन्ध की याद दिला देता है। हालांकि उस समय हम सिनेमा की बारीकियों से अनभिज्ञ होते हैं। सिनेमा का इतिहास, फ़िल्म बनने की प्रक्रिया ,यहां तक कि नायक नायिका की अभिनय कला और उनके संघर्षों को भी हम नही समझ पाते थे फिर भी निर्धारित शब्दो की सीमा में हमारा निबंध तैयार हो ही जाता था जो परीक्षा में हमारे अच्छे अंक सुनिश्चित कर देता है। यकीनन जिस विषय को शिक्षा प्रणाली में इतना महत्व दिया जाता है और उस पर निबंध लिखवाया जाता है उसका जीवन में कोई व्यावहारिक उपयोग संदिग्ध ही रहता है। मुझे लगता है कि उसके लिए उस वक्त विद्यार्थियों द्वारा अपेक्षित शोध और मेहनत नहीं की जाती. एक मात्र उद्देश्य परिक्षा में अच्छे अंक अर्जित करना ही रहता है।
दरअसल, जब तक कि हम यह ना समझ लें कि वाकई में सिनेमा क्या है , उसका इतिहास क्या है , कैसे बनती है, कैसे कोई इंसान अपने मूल रूप से हटकर एक दम अलग किरदार निभाता है , कैसे वो किरदार कलाकार के भीतर तक समाहित हो जाता है, कैसे कहानियां रची जाती है ,कैसे किसी फिल्म के डायलॉग अमर हो जाते हैं। बिना ये सब जाने और कई तरह की भिन्न-भिन्न फ़िल्में देखे बिना, हम कैसे उस पर सटीक निबंध लिख सकते हैं या यह भी कैसे कहा जा सकता है कि ‘ सिनेमा समाज का दर्पण है’।
मेरा मानना है कि फिल्मे भी अब पाठ्यक्रम का एक ज़रूरी हिस्सा बनें। जिसमें अलग अलग समय और देश मे बनी महान फिल्मों को दिखाया जाए. उस पर सामाजिक,आर्थिक के साथ राष्ट्रीय मुद्दों का विश्लेषण भी किया जाए। कई विद्यालयों में पहले और आज भी फिल्मे दिखाई जाने की परम्परा रही है पर अधिकतर यह केवल वार्षिक समारोह में मात्र मनोरंजन के लिए ही विद्यार्थियों के समूह के बीच प्रदर्शित की जाती हैं. विद्यालय आज भी स्तरीय सिनेमा की पहुच से काफी दूर दिखाई देते हैं । हालांकि प्रबंधन की पढाई में ‘लगान’ जैसी कुछ फिल्मों के सन्दर्भों का प्रयोग होता रहा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता ।
फिल्मों और उनमें बताई, दिखाई बातों का गहरा असर इंसान के मन, मस्तिष्क में प्रत्यक्ष रुप से होता है। रेडियो और प्रिंट मीडिया की तरह सीमित नही होकर सिनेमा के पास पर्याप्त अवसर होते हैं किसी भी बात को अभिव्यक्त करने के। सिनेमा के जरिये हम अपने जैसे ही किरदारों को बोलते सुनते अलग-अलग परिस्थितियों से उलझते संभलते देख सकते है। हम समाज मे उपस्थिति अलग अलग चरित्र के लोगो का अध्ययन कर सकते हैं। हम भिन्न भिन्न क्षेत्र की संस्कृति ,विचारधारा और वहां के लोगो के रोज़मर्रा के जीवन और संघर्षों को देख सकते है। समाज में प्रचलित विभिन्न भाषाओं, भूषाओं और भोजन के बारे में अपनी जानकारी बढ़ा सकते हैं। अलग अलग देश काल की खूबसूरतियों और तत्कालीन कुरीतियों को समझकर संवेदशील और बेहतर इंसान बन सकते हैं। इसके अलावा स्वस्थ मनोरंजन जीवन को प्रफुल्लता से तो भर ही देता है।
सिनेमा को एक थेरपी की तरह भी देखा जा सकता है। हमारे जीवन के कुछ दौर काफी संघर्षपूर्ण होते हैं। ज़रूरी नही की हमारे साथ हमेशा कोई ऐसा साथी मौजूद हो जो हमारा उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन करता रहे। ऐसे में किताबें तो हमारी सब से अच्छी दोस्त होती ही हैं लेकिन फ़िल्में भी हमारे अकेलेपन को काफी हद तक कम कर देती हैं, विशेषकर नई टेक्नोलोजी के इस दौर में अपने कंप्यूटर और टीवी पर भी घर बैठे मनचाही फिल्मों का अवलोकन चौबीसों घंटे किया जा सकता है। लेकिन सिनेमा देखने का भी एक व्यवस्थित तरीका होना ज़रूरी है और उसके पीछे कुछ मकसद भी होना चाहिए। केवल समय काटने के लिए कोई काम करना सही नही कहा जा सकता. कोशिश हमेशा यही होना चाहिए कि खाली समय मे कुछ रचनात्मक काम किया जाए। अपने बहुमूल्य समय को लंबे समय तक सिर्फ बेकार के कामों में व्यर्थ गवाने से आगे चल कर अवसाद की स्थिति निर्मित हो सकती है। इसलिए काम शुरू करने से पहले उस सन्दर्भ में चाहे वह फिल्मावलोकन ही क्यों न हो पर्याप्त अध्ययन और मनः स्थिति का बनना बहुत जरूरी है।
ऐसे कई उदाहरण हमारे समाज मे मौजूद है जहां फिल्मे देख कर और अपने मनपसंद कलाकारों से प्रेरित होकर लोगो का जीवन बदला है। मैं खुद एक दादी को जानती हूँ जो कि दादा के देहांत के बाद काफी निष्क्रिय हो गयी थीं। उनके परिवार के जागरूक सदस्यों ने थोड़ा अध्ययन कर के कुछ ऐसी फिल्मों की सूची बनाई और रोज़ उन्हें दोपहर में एक फ़िल्म दिखाई गई ऐसे में दादी की बोरियत तो दूर हुई ही साथ मे उनके अंदर उन फिल्मों से प्रेरित हो कर एक बार फिर स्फूर्ति आ गयी और उन्होंने आगे के जीवन को पूरी तरह से स्वीकार कर फिर से जीवन की दौड़ लगाते ही अपनी नई सफल पारी की शुरुआत की।
विद्यार्थियों के लिए , युवाओ के लिए भी अच्छा सिनेमा बहुत ज़रूरी है जिस से की युवा असल जीवन के संघर्ष और हकीकत से समय रहते रूबरू हो सके। ताकि कम उम्र में आत्महत्या, मनोरोगों से वो दूर रह वह स्वस्थ और प्रयत्नशील बने रह सके ।ऐसी कई फिल्मे है जो गिरकर उठना और संघर्ष करते रहना सीखाती है और साहसी भी बनाती है।
इस के अतिरिक्त पारिवारिक फ़िल्में जिन में गृहक्लेश दिखाए जाते हैं वे भी कभी कभार देख लेने में कोई हर्ज नहीं है ताकि सही समय पर पता चल सके कि कही हम भी अपने घर की खलनायिका या खलनायक तो नही बनते जा रहे। कुछ फिल्मे सब के साथ बैठ कर देखना चाहिए जिसमें पूरा परिवार मिलकर साथ-साथ हंस पाए और परिवार में प्रफुल्लता का झरना प्रवाहित होता रहे।
हम जानते हैं सिनेमा निर्माण एक दुसाध्य काम है. अच्छी फिल्म बनाने में काफी मेहनत लगती है. कई लोगो का इसमे योगदान रहता है. अनेक कलाकार और टेक्नीशियन इस से भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं इसलिए ज़रूरी है कि फिल्मो को सही मंच पर ही देखे, गैरकानूनी तरीके से नही। और ये भी ज़रूरी है कि थोड़ा शोध करके अच्छी और सार्थक फिल्मे देखी जाएँ।
एक अच्छी फिल्म हम को बस कुछ घंटे का मनोरंजन ही नही देती वो हमारे साथ जीवन भर रहती है. हमारी सोच , हमारे हौसले , हमारे शब्दो को नई उड़ान देती है । तो आइए जल्दी ही लिस्ट बनाये कुछ नायाब फिल्मों की, जो हमे नया नजरिया और सही दिशा दे... एक सच्चे हितचिन्तक की तरह जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से भर दे..
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दुनिया मेरे आगे
सिनेमा के सहारे
एकता कानूनगो बक्षी
‘साहित्य और सिनेमा हमारे समाज का दर्पण है’ यह वाक्य हमे स्वतः ही विद्यालय में लिखे निबंन्ध की याद दिला देता है। हालांकि उस समय हम सिनेमा की बारीकियों से अनभिज्ञ होते हैं। सिनेमा का इतिहास, फ़िल्म बनने की प्रक्रिया ,यहां तक कि नायक नायिका की अभिनय कला और उनके संघर्षों को भी हम नही समझ पाते थे फिर भी निर्धारित शब्दो की सीमा में हमारा निबंध तैयार हो ही जाता था जो परीक्षा में हमारे अच्छे अंक सुनिश्चित कर देता है। यकीनन जिस विषय को शिक्षा प्रणाली में इतना महत्व दिया जाता है और उस पर निबंध लिखवाया जाता है उसका जीवन में कोई व्यावहारिक उपयोग संदिग्ध ही रहता है। मुझे लगता है कि उसके लिए उस वक्त विद्यार्थियों द्वारा अपेक्षित शोध और मेहनत नहीं की जाती. एक मात्र उद्देश्य परिक्षा में अच्छे अंक अर्जित करना ही रहता है।
दरअसल, जब तक कि हम यह ना समझ लें कि वाकई में सिनेमा क्या है , उसका इतिहास क्या है , कैसे बनती है, कैसे कोई इंसान अपने मूल रूप से हटकर एक दम अलग किरदार निभाता है , कैसे वो किरदार कलाकार के भीतर तक समाहित हो जाता है, कैसे कहानियां रची जाती है ,कैसे किसी फिल्म के डायलॉग अमर हो जाते हैं। बिना ये सब जाने और कई तरह की भिन्न-भिन्न फ़िल्में देखे बिना, हम कैसे उस पर सटीक निबंध लिख सकते हैं या यह भी कैसे कहा जा सकता है कि ‘ सिनेमा समाज का दर्पण है’।
मेरा मानना है कि फिल्मे भी अब पाठ्यक्रम का एक ज़रूरी हिस्सा बनें। जिसमें अलग अलग समय और देश मे बनी महान फिल्मों को दिखाया जाए. उस पर सामाजिक,आर्थिक के साथ राष्ट्रीय मुद्दों का विश्लेषण भी किया जाए। कई विद्यालयों में पहले और आज भी फिल्मे दिखाई जाने की परम्परा रही है पर अधिकतर यह केवल वार्षिक समारोह में मात्र मनोरंजन के लिए ही विद्यार्थियों के समूह के बीच प्रदर्शित की जाती हैं. विद्यालय आज भी स्तरीय सिनेमा की पहुच से काफी दूर दिखाई देते हैं । हालांकि प्रबंधन की पढाई में ‘लगान’ जैसी कुछ फिल्मों के सन्दर्भों का प्रयोग होता रहा है लेकिन यह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता ।
फिल्मों और उनमें बताई, दिखाई बातों का गहरा असर इंसान के मन, मस्तिष्क में प्रत्यक्ष रुप से होता है। रेडियो और प्रिंट मीडिया की तरह सीमित नही होकर सिनेमा के पास पर्याप्त अवसर होते हैं किसी भी बात को अभिव्यक्त करने के। सिनेमा के जरिये हम अपने जैसे ही किरदारों को बोलते सुनते अलग-अलग परिस्थितियों से उलझते संभलते देख सकते है। हम समाज मे उपस्थिति अलग अलग चरित्र के लोगो का अध्ययन कर सकते हैं। हम भिन्न भिन्न क्षेत्र की संस्कृति ,विचारधारा और वहां के लोगो के रोज़मर्रा के जीवन और संघर्षों को देख सकते है। समाज में प्रचलित विभिन्न भाषाओं, भूषाओं और भोजन के बारे में अपनी जानकारी बढ़ा सकते हैं। अलग अलग देश काल की खूबसूरतियों और तत्कालीन कुरीतियों को समझकर संवेदशील और बेहतर इंसान बन सकते हैं। इसके अलावा स्वस्थ मनोरंजन जीवन को प्रफुल्लता से तो भर ही देता है।
सिनेमा को एक थेरपी की तरह भी देखा जा सकता है। हमारे जीवन के कुछ दौर काफी संघर्षपूर्ण होते हैं। ज़रूरी नही की हमारे साथ हमेशा कोई ऐसा साथी मौजूद हो जो हमारा उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन करता रहे। ऐसे में किताबें तो हमारी सब से अच्छी दोस्त होती ही हैं लेकिन फ़िल्में भी हमारे अकेलेपन को काफी हद तक कम कर देती हैं, विशेषकर नई टेक्नोलोजी के इस दौर में अपने कंप्यूटर और टीवी पर भी घर बैठे मनचाही फिल्मों का अवलोकन चौबीसों घंटे किया जा सकता है। लेकिन सिनेमा देखने का भी एक व्यवस्थित तरीका होना ज़रूरी है और उसके पीछे कुछ मकसद भी होना चाहिए। केवल समय काटने के लिए कोई काम करना सही नही कहा जा सकता. कोशिश हमेशा यही होना चाहिए कि खाली समय मे कुछ रचनात्मक काम किया जाए। अपने बहुमूल्य समय को लंबे समय तक सिर्फ बेकार के कामों में व्यर्थ गवाने से आगे चल कर अवसाद की स्थिति निर्मित हो सकती है। इसलिए काम शुरू करने से पहले उस सन्दर्भ में चाहे वह फिल्मावलोकन ही क्यों न हो पर्याप्त अध्ययन और मनः स्थिति का बनना बहुत जरूरी है।
ऐसे कई उदाहरण हमारे समाज मे मौजूद है जहां फिल्मे देख कर और अपने मनपसंद कलाकारों से प्रेरित होकर लोगो का जीवन बदला है। मैं खुद एक दादी को जानती हूँ जो कि दादा के देहांत के बाद काफी निष्क्रिय हो गयी थीं। उनके परिवार के जागरूक सदस्यों ने थोड़ा अध्ययन कर के कुछ ऐसी फिल्मों की सूची बनाई और रोज़ उन्हें दोपहर में एक फ़िल्म दिखाई गई ऐसे में दादी की बोरियत तो दूर हुई ही साथ मे उनके अंदर उन फिल्मों से प्रेरित हो कर एक बार फिर स्फूर्ति आ गयी और उन्होंने आगे के जीवन को पूरी तरह से स्वीकार कर फिर से जीवन की दौड़ लगाते ही अपनी नई सफल पारी की शुरुआत की।
विद्यार्थियों के लिए , युवाओ के लिए भी अच्छा सिनेमा बहुत ज़रूरी है जिस से की युवा असल जीवन के संघर्ष और हकीकत से समय रहते रूबरू हो सके। ताकि कम उम्र में आत्महत्या, मनोरोगों से वो दूर रह वह स्वस्थ और प्रयत्नशील बने रह सके ।ऐसी कई फिल्मे है जो गिरकर उठना और संघर्ष करते रहना सीखाती है और साहसी भी बनाती है।
इस के अतिरिक्त पारिवारिक फ़िल्में जिन में गृहक्लेश दिखाए जाते हैं वे भी कभी कभार देख लेने में कोई हर्ज नहीं है ताकि सही समय पर पता चल सके कि कही हम भी अपने घर की खलनायिका या खलनायक तो नही बनते जा रहे। कुछ फिल्मे सब के साथ बैठ कर देखना चाहिए जिसमें पूरा परिवार मिलकर साथ-साथ हंस पाए और परिवार में प्रफुल्लता का झरना प्रवाहित होता रहे।
हम जानते हैं सिनेमा निर्माण एक दुसाध्य काम है. अच्छी फिल्म बनाने में काफी मेहनत लगती है. कई लोगो का इसमे योगदान रहता है. अनेक कलाकार और टेक्नीशियन इस से भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं इसलिए ज़रूरी है कि फिल्मो को सही मंच पर ही देखे, गैरकानूनी तरीके से नही। और ये भी ज़रूरी है कि थोड़ा शोध करके अच्छी और सार्थक फिल्मे देखी जाएँ।
एक अच्छी फिल्म हम को बस कुछ घंटे का मनोरंजन ही नही देती वो हमारे साथ जीवन भर रहती है. हमारी सोच , हमारे हौसले , हमारे शब्दो को नई उड़ान देती है । तो आइए जल्दी ही लिस्ट बनाये कुछ नायाब फिल्मों की, जो हमे नया नजरिया और सही दिशा दे... एक सच्चे हितचिन्तक की तरह जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से भर दे..
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