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Tuesday, October 27, 2015

कविता / वो संवाद

कविता
वो संवाद

उफ़! ये बदबू !
लगता नहीं कि यह घर है
दवाखाना लगता है
जी यह घर ही है
धीमी सी आवाज़ में जवाब मिला
कहाँ से ? चारो तरफ तो घेर रखा है दवाओं ने
बाहर निकालो ज़रा सांस लो खुली हवा में
मिला करो अपनों से ..!
यही अपने हैं मेरे..
जब शरीर दर्द करता है
देखिये वो छोटी सी शर्मीली सी लाल लिबास में खड़ी है शीशे की मेरी दोस्त
मेरा सारा दर्द हर लेती है
तो जब नींद नहीं आती तो वो अच्छे कद का वह मेरा शुभ चिन्तक
सब ठीक कर देता है बिना कुछ कहे
मेरे साथ ही सोता है
यह मेरा छोटा सा दर्द हारी बाम
अरे! कैसी बाते कर रहे हो !
परिवार कहाँ है आपका?
इतनी दवाई लेना ठीक नहीं आपके लिए
जी परिवार को फुर्सत नहीं अब अपनों से
सबके अपने अपने दुखड़े हैं
दोस्त तो होगा कोई आपका?
दोस्त तो कब के पीछे छूट गए चले गए अपने नए आशियानों में
आप सही नहीं कर रहे अपने साथ,
बाहर निकलिए इन सब से
खुली हवा में चहल कदमी कीजिये थोड़ा बहुत
जी आप सही हैं शायद
ऐसा ही करूँगा साहब अब
आप आ जाया कीजिये न मुझ से मिलने
अच्छा लगता है !!
एकता

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