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Sunday, February 28, 2016

बॉलकनी में एक शाम

बॉलकनी में एक शाम


कुर्सी पर बैठी, निहार रही थी
सूरज की चित्रकारी
नीले कैनवास पर पल पल बदलते   रंगो की कूंचिया  चला रहा था  लगातार

घर लौटते मजदूरो का साथ दे रहे थे
आशियानों में लौटते पंछियो के  समूह
यही था शायद जो दृश्य में सुनाई दे रहा था सांध्य राग की तरह

उत्तर की शीतल हवा पूरे दिन की तपन और थकान को
अपनी शीतलता से विश्राम का अनुरोध कर रही थी

नीले कैनवास का रंग पल पल बदलते हुए सिन्दूरी होकर
धीरे धीरे लुप्त  हो गया अँधेरे मे
महसूस हुआ की सूरज अब अपने खेल से थक चुका है
देखते ही देखते वह अपना काम चाँद को सौप  आराम करने चला गया चुपचाप

खूबसूरत गोधूलि बेला से गुजर रही है साँझ
देवस्थानों की घंटियों ,अज़ान और घरों में जलाई लोबान अगरबत्तियों  की खुशबू से महक गई है बॉलकनी 

आने लगी है अब सीटियों की आवाज़े लगातार 
कभी इस दिशा से तो कभी उस दिशा से
घरो में जैसे सायरन बज उठे हो किसी घोषणा में
आमंत्रण की पुकार थी शायद   किसी के प्यार से बने भोजन की खुशबू लिए,
 जो पहुँच रही थी बॉलकनी तक

अब आसमान पूरी तरह से भर गया था टिमटिमाते तारो से
जैसे परोस दिये हों व्यंजन
किसी ने थाली में
चाँद बैठा था थाली संजोये  आसमान में
जैसे माँ भोजन कराती थी सामने बैठकर

दूर अँधेरे में एक झोपड़ी से धुँआ निकलता दिख रहा है
रोटियों के सिकने और मसालों की महक को महसूस करने लगी हूँ मैं
बहुत नजदीक आ गयी है चाँद की रसोई।

एकता

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