आज सुबह सवेरे में मेरा आलेख पढ़ें। महान समाजसेवी सावित्रीबाई फुले की जयंती पर विशेष ।
लेख
एकता कानूनगो बक्षी
स्त्रीशिक्षा के दीपक की गौरव ज्योति : सावित्रीबाई फुले
किसी भी देश की तरक्की और वास्तविक विकास का अनुमान वहाँ की महिलाओं की स्थिति से लगाया जा सकता है । दुनिया में इतनी तरक्की के बावजूद महिला सशक्तिकरण आज भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है।
इस दिशा में थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सबसे पहला बड़ा और साहसी कदम हमारे यहां सावित्री बाई फुले ने भी उठाया था ।
सावित्रीबाई फुले न केवल भारत की पहली अध्यापिका और पहली प्रधानाचार्या थीं, अपितु वे सम्पूर्ण समाज के लिए एक आदर्श प्रेरणा स्त्रोत, प्रख्यात समाज सुधारक, जागरूक और प्रतिबद्ध कवयित्री, विचारशील चिन्तक,भारत के स्त्री आन्दोलन की अगुआ भी थीं।
सावित्री बाई फुले का व्यक्तित्व हम सब के लिए प्रेरणादायीं है उनका व्यक्तित्व आज भी स्त्रियों के क्षीण होते
आत्मविश्वास को बढ़ाने में सक्षम है । उनका उदाहरण और उनकी प्रगतिशील सोच हमें निर्भीक होकर अपने लक्ष्य की और बढ़ते रहने को प्रेरणा देता है ।
आज महिलाओ के सामने जीवन का बहुआयामी विशाल केन्वास है जिस पर वो उसे अपने पसंद के रंगों से रंगने की क्षमता रखती हैं। लेकिन पहले ऐसा नही था । सावित्री बाई की हिम्मत और संघर्ष का नतीजा है की आज महिलाओं में अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत देखी जा सकती है ।
ऐसी महान नायिका के जीवन को समझना और उनके कार्यों को जानना जरूरी ही नहीं प्रेरणास्पद भी है।
सावित्री बाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के नायगाँव में सन 1831 को हुआ था ,उनके परिवार में सब खेती करते थे । 9 वर्ष की कम आयु में उनका विवाह 12 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ । दोनों की एक नई सकारात्मक सोच थी जो कुरीतियों को खत्म करने और महिलाओं के कल्याण के लिए उनके सशक्तिकरण पर केंद्रित थी ।
यही से सावित्री बाई फुले का संघर्ष शुरू हुआ । वह खुद शिक्षित हुई और फिर उन्होंने ठान लिया कि हर स्त्री तक शिक्षा को पहुचाना है । और उसके बाद उन्होंने कभी मुड़ कर नही देखा ।
उन्होंने 1848 में पुणे में देश की पहली महिला स्कूल की स्थापना की.उस दौर में उन्हें ऐसी सकारात्मक पहल के लिए विरोध और आलोचना का सामना भी करना पड़ा। कई तरह से उनके प्रयासों को रोकने की भी कोशिश की गई पर उनके मजबूत इरादों और हौसले के सामने कोई भी नही टिक सका।
महिलाओं को शिक्षित बनाने के साथ साथ उन्होंने उस समय समाज में व्याप्त कुरीतियों को भी खत्म करने का संघर्ष किया और सफल भी हुई ।
उन दिनों विशेष रूप से हिन्दू समाज में कम उम्र में ही विवाह कर देना आम परंपरा थी. इसीलिये उस समय बहुत सी बालिकाएं अल्पायु में ही विधवा हो जाती थी, और प्रचलित परम्पराओ के अनुसार महिलाओ का पुनर्विवाह भी सम्भव नही होता था. सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने इस दिशा में सोचा और ऐसी महिलाओ को उनका सही हक दिलवाने के लिए उन्होंने आंदोलन भी किया।
उस समय महिलाओ को सामाजिक और आर्थिक अधिकार प्रायः बहुत कम हुआ करते थे। इन्ही वजहों से कई बार उनको शोषण और अत्याचार का भी सामना करना पड़ता था। जिसमे कही-कही तो घर के सदस्यों द्वारा ही महिलाओ पर शारीरिक शोषण किया जाता था. गर्भवती महिलाओ का कई बार जबरन गर्भपात करवा दिया जाता था, और बेटी पैदा होने के डर से बहोत सी महिलाये आत्महत्या तक करने को विवश हो जाती थीं।
एक बार सावित्रीबाई फुले के पति ज्योतिराव ने एक महिला को आत्महत्या करने से रोका, और उसे वादा किया कि बच्चे के जन्म होते ही वह उसे अपना नाम देगे. सावित्रीबाई ने भी उस महिला को अपने घर रहने की आज्ञा दे दी और गर्भवती महिला की सेवा भी की. सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने उस बच्चे को अपनाने के बाद उसे यशवंतराव नाम दिया. उसकी शिक्षा का प्रबंध किया।
आगे चलकर सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने महिलाओ की सुरक्षा के लिये एक सेंटर की स्थापना की, और अपने सेंटर का नाम “बालहत्या प्रतिबंधक गृह” रखा. सावित्रीबाई महिलाओ की जी जान से सेवा करती थी और चाहती थी की सभी बच्चे उन्ही के सेंटर में जन्म ले. घर में सावित्रीबाई किसी प्रकार का रंगभेद या जातिभेद नही करती थी वह सभी गर्भवती महिलाओ का समान उपचार करती थीं .
सच तो यह है कि सावत्रीबाई फुले 19 वीं शताब्दी की पहली ऐसी भारतीय समाज सुधारक थी जिन्होंने भारत में महिलाओ के अधिकारो को उन तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सावित्री बाई फुले और ज्योति राव फुले ने समाज के उपेक्षित तबके की शिक्षा एवं महिला शिक्षा आरम्भ कर नए युग की नीव रखी . उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की जो कम से कम खर्चे पर दहेज मुक्त और बिना पंडित पुजारियो के विवाह सम्पन्न करवाने का पुनीत कार्य करती थी।
सावित्रीबाई फुले की प्रेरणा से दत्तक पुत्र यशवंतराव ने वैश्विक स्तर 1897 में मरीजो का इलाज करने के लिये अस्पताल भी खोलने की पहल की थी।
अपने अस्पताल में सावित्रीबाई खुद हर एक मरीज का ध्यान रखती, उन्हें विविध सुविधाये प्रदान करती. इस तरह मरीजो का इलाज करते-करते उन्हें भी बीमारी ने जकड़ लिया ।अस्वस्थता के कारण 10 मार्च 1897 को वे इस संसार से प्रस्थान कर गईं।
उनके जाने के बाद भी हम पूरे सम्मान के साथ उन्हें याद करते हैं। सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं. हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया।
उनके संघर्षों की कहानियां आज भी सही बातों के लिए लड़ते रहने की प्रेरणा देती हैं। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर तक फैंका करते थे. सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं. पर किसी भी तरह की मुश्किल परिस्थिति उनके इरादों को कभी कमज़ोर नही कर पाई । उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व और जीवन हमे प्रेरणा देता है,देता रहेगा। ।
जब सावित्री बाई फुले ने इतनी विपरीत परिस्थित में भी शिक्षा को सब तक पहुचाने का संघर्ष किया तो क्यो न हम भी कोशिश करे कि समय निकाल कर ज्ञान का प्रकाश फैलाये ।अंत में उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति बंधन तोड़ने की बात करती है आपसे साझा करना चाहूंगी ।
जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर,
बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है
इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है,
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो.
एकता कानूनगो बक्षी
लेख
एकता कानूनगो बक्षी
स्त्रीशिक्षा के दीपक की गौरव ज्योति : सावित्रीबाई फुले
किसी भी देश की तरक्की और वास्तविक विकास का अनुमान वहाँ की महिलाओं की स्थिति से लगाया जा सकता है । दुनिया में इतनी तरक्की के बावजूद महिला सशक्तिकरण आज भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है।
इस दिशा में थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सबसे पहला बड़ा और साहसी कदम हमारे यहां सावित्री बाई फुले ने भी उठाया था ।
सावित्रीबाई फुले न केवल भारत की पहली अध्यापिका और पहली प्रधानाचार्या थीं, अपितु वे सम्पूर्ण समाज के लिए एक आदर्श प्रेरणा स्त्रोत, प्रख्यात समाज सुधारक, जागरूक और प्रतिबद्ध कवयित्री, विचारशील चिन्तक,भारत के स्त्री आन्दोलन की अगुआ भी थीं।
सावित्री बाई फुले का व्यक्तित्व हम सब के लिए प्रेरणादायीं है उनका व्यक्तित्व आज भी स्त्रियों के क्षीण होते
आज महिलाओ के सामने जीवन का बहुआयामी विशाल केन्वास है जिस पर वो उसे अपने पसंद के रंगों से रंगने की क्षमता रखती हैं। लेकिन पहले ऐसा नही था । सावित्री बाई की हिम्मत और संघर्ष का नतीजा है की आज महिलाओं में अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत देखी जा सकती है ।
ऐसी महान नायिका के जीवन को समझना और उनके कार्यों को जानना जरूरी ही नहीं प्रेरणास्पद भी है।
सावित्री बाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के नायगाँव में सन 1831 को हुआ था ,उनके परिवार में सब खेती करते थे । 9 वर्ष की कम आयु में उनका विवाह 12 साल के ज्योतिराव फुले से हुआ । दोनों की एक नई सकारात्मक सोच थी जो कुरीतियों को खत्म करने और महिलाओं के कल्याण के लिए उनके सशक्तिकरण पर केंद्रित थी ।
यही से सावित्री बाई फुले का संघर्ष शुरू हुआ । वह खुद शिक्षित हुई और फिर उन्होंने ठान लिया कि हर स्त्री तक शिक्षा को पहुचाना है । और उसके बाद उन्होंने कभी मुड़ कर नही देखा ।
उन्होंने 1848 में पुणे में देश की पहली महिला स्कूल की स्थापना की.उस दौर में उन्हें ऐसी सकारात्मक पहल के लिए विरोध और आलोचना का सामना भी करना पड़ा। कई तरह से उनके प्रयासों को रोकने की भी कोशिश की गई पर उनके मजबूत इरादों और हौसले के सामने कोई भी नही टिक सका।
महिलाओं को शिक्षित बनाने के साथ साथ उन्होंने उस समय समाज में व्याप्त कुरीतियों को भी खत्म करने का संघर्ष किया और सफल भी हुई ।
उन दिनों विशेष रूप से हिन्दू समाज में कम उम्र में ही विवाह कर देना आम परंपरा थी. इसीलिये उस समय बहुत सी बालिकाएं अल्पायु में ही विधवा हो जाती थी, और प्रचलित परम्पराओ के अनुसार महिलाओ का पुनर्विवाह भी सम्भव नही होता था. सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने इस दिशा में सोचा और ऐसी महिलाओ को उनका सही हक दिलवाने के लिए उन्होंने आंदोलन भी किया।
उस समय महिलाओ को सामाजिक और आर्थिक अधिकार प्रायः बहुत कम हुआ करते थे। इन्ही वजहों से कई बार उनको शोषण और अत्याचार का भी सामना करना पड़ता था। जिसमे कही-कही तो घर के सदस्यों द्वारा ही महिलाओ पर शारीरिक शोषण किया जाता था. गर्भवती महिलाओ का कई बार जबरन गर्भपात करवा दिया जाता था, और बेटी पैदा होने के डर से बहोत सी महिलाये आत्महत्या तक करने को विवश हो जाती थीं।
एक बार सावित्रीबाई फुले के पति ज्योतिराव ने एक महिला को आत्महत्या करने से रोका, और उसे वादा किया कि बच्चे के जन्म होते ही वह उसे अपना नाम देगे. सावित्रीबाई ने भी उस महिला को अपने घर रहने की आज्ञा दे दी और गर्भवती महिला की सेवा भी की. सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने उस बच्चे को अपनाने के बाद उसे यशवंतराव नाम दिया. उसकी शिक्षा का प्रबंध किया।
आगे चलकर सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने महिलाओ की सुरक्षा के लिये एक सेंटर की स्थापना की, और अपने सेंटर का नाम “बालहत्या प्रतिबंधक गृह” रखा. सावित्रीबाई महिलाओ की जी जान से सेवा करती थी और चाहती थी की सभी बच्चे उन्ही के सेंटर में जन्म ले. घर में सावित्रीबाई किसी प्रकार का रंगभेद या जातिभेद नही करती थी वह सभी गर्भवती महिलाओ का समान उपचार करती थीं .
सच तो यह है कि सावत्रीबाई फुले 19 वीं शताब्दी की पहली ऐसी भारतीय समाज सुधारक थी जिन्होंने भारत में महिलाओ के अधिकारो को उन तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सावित्री बाई फुले और ज्योति राव फुले ने समाज के उपेक्षित तबके की शिक्षा एवं महिला शिक्षा आरम्भ कर नए युग की नीव रखी . उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की जो कम से कम खर्चे पर दहेज मुक्त और बिना पंडित पुजारियो के विवाह सम्पन्न करवाने का पुनीत कार्य करती थी।
सावित्रीबाई फुले की प्रेरणा से दत्तक पुत्र यशवंतराव ने वैश्विक स्तर 1897 में मरीजो का इलाज करने के लिये अस्पताल भी खोलने की पहल की थी।
अपने अस्पताल में सावित्रीबाई खुद हर एक मरीज का ध्यान रखती, उन्हें विविध सुविधाये प्रदान करती. इस तरह मरीजो का इलाज करते-करते उन्हें भी बीमारी ने जकड़ लिया ।अस्वस्थता के कारण 10 मार्च 1897 को वे इस संसार से प्रस्थान कर गईं।
उनके जाने के बाद भी हम पूरे सम्मान के साथ उन्हें याद करते हैं। सावित्रीबाई पूरे देश की महानायिका हैं. हर बिरादरी और धर्म के लिये उन्होंने काम किया।
उनके संघर्षों की कहानियां आज भी सही बातों के लिए लड़ते रहने की प्रेरणा देती हैं। जब सावित्रीबाई कन्याओं को पढ़ाने के लिए जाती थीं तो रास्ते में लोग उन पर गंदगी, कीचड़, गोबर तक फैंका करते थे. सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुँच कर गंदी कर दी गई साड़ी बदल लेती थीं. पर किसी भी तरह की मुश्किल परिस्थिति उनके इरादों को कभी कमज़ोर नही कर पाई । उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व और जीवन हमे प्रेरणा देता है,देता रहेगा। ।
जब सावित्री बाई फुले ने इतनी विपरीत परिस्थित में भी शिक्षा को सब तक पहुचाने का संघर्ष किया तो क्यो न हम भी कोशिश करे कि समय निकाल कर ज्ञान का प्रकाश फैलाये ।अंत में उनकी एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता है जिसमें वह सबको पढ़ने लिखने की प्रेरणा देकर जाति बंधन तोड़ने की बात करती है आपसे साझा करना चाहूंगी ।
जाओ जाकर पढ़ो-लिखो, बनो आत्मनिर्भर,
बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है, ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते है
इसलिए, खाली ना बैठो, जाओ, जाकर शिक्षा लो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है,
इसलिए सीखो और जाति के बंधन तोड़ दो.
एकता कानूनगो बक्षी

No comments:
Post a Comment