जनसत्ता में आज मेरा लेख पढ़ें।
रिश्तों की रंगोली
एकता कानूनगो बक्षी
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अन्य लोगों के बिना उसका जीवन संभव नहीं. समाज ही है जो मनुष्य की सभी प्रकार की ज़रूरतों को पूरा करता है। वह चाहे सुख-सुविधाओं की बात हो या मन की शान्ति की चाह या फिर अपनी संवेदनाओं, विचारों को दूसरों तक पहुंचाने की हार्दिक इच्छा. यह सब तब ही हो पाता है जब हम लोगों के बीच रहते हैं, अपने सुख-दुःख बाँट पाते हैं। हमारे ऋषि मुनि और अनेक साधक कुछ समय के लिए एकाकी रहकर जरूर साधना करते रहे हैं लेकिन वे भी आशा और विश्वास की ज्योति और ज्ञान का प्रकाश लिए इसी समाज के कल्याण के लिए लौट कर आते हैं. इंसान को भौतिक सुख सुविधाओं की ज़रूरत तो होती ही है किन्तु उससे कहीं अधिक भावनात्मक संबल की तलाश इसी समाज में बनी रहती है।
पुराने समय में साधन बहुत कम थे और अपनी जरूरतों की पूर्ती के लिए जद्दोजहत भी बहुत करनी पड़ती थी। डर अधिक थे इसलिए समूह भी बड़े होते थे। संयुक्त परिवार होते थे लेकिन समय के बदलाव और पारिवारिक जीवन शैली में परिवर्तन आने पर बिखरते रहे। हालांकि अभी भी कई संयुक्त परिवार अपवाद स्वरूप दिखाई देते हैं जो एक प्रकार की मिसाल कहे जा सकते हैं । आपसी समझ , सहनशीलता , स्नेह और आदर जैसे महान आदर्शो की नींव पर स्थापित परिवार ही लम्बे समय तक संयुक्त रह सकते है जहां हर सदस्य एक दूसरे से भावनात्मक और जैविक रूप से जुड़ा होने के बाद भी स्वतंत्र हो। किसी तरह की घुटन का यहां स्थान नही है। पर ऐसा होना आदर्श स्थिति है जो की दुर्लभ ही होगी।
संयुक्त परिवारों के अलावा भी एक विस्तृत कुटुंब होता था । घरों की दीवारों और छतों की उपस्थिति से भी रिश्तों का निर्माण हो जाता था। पडौसियों के परिवार हमारे अपने कुटुंब का हिस्सा होते थे। छतों पर पतंग उड़ाते और बड़ियाँ, पापड बनाती बहुएं और सासें सब उसी कुटुंब का हिस्सा होते थे. सबके सुख और दुख एक हो जाते थे। हालांकि ये स्थिति आज भी कहीं कहीं देखने को मिल जाती है. रिश्ते में प्रगाड़ता की चाह हो तो मकानों की मोटी दीवारें बाधक नहीं बन सकती।
अब स्थितियां बहुत बदल गईं हैं। खासतौर पर शहरों और महानगरों में कुटुंब तो क्या, संयुक्त परिवार तक नहीं रहे. बेटे और पिता के अपने अलग अलग परिवार होते हैं। यहां पड़ोसी तो है पर दरवाज़े तभी खोले जाते है जब दरवाज़े की घंटी बजाई जाए। महानगर है, मल्टी स्टोरी बिल्डिंग का फ्लेट है तो सुरक्षा की दृष्टि से दरवाज़े बंद रखना ज़रूरी है। बाप बेटे भी पड़ोसी की तरह अलग रहते हैं। अपने तो होते हैं कभी कभी आते है मिलते हैं मेंहमानों की तरह।
ऐसे में यहां सिर्फ एक इंसान नियमित घर के दरवाजे पर दस्तक देता है, बेल बजाता है। वह होती है घर पर काम करने वाली बाई। ये महरी केवल महरी नही हो कर घर की सदस्य जैसी ही हो जाती है। इस महरी में ही हमको हमारे बिछुड़े परिवार के सदस्य दिखाई देते हैं. माँ, दादी ,मौशी, बहन, और बेटी भी। और अगर आप मृदुभाषी है, उससे आत्मीयता से बात करते हैं तो वह भी स्नेह से आपको भिगो देती है। आपको गर्म-गर्म फुलके खिला माँ की याद दिला देती है, तो आपके बीमार हो जाने पर आपके सर पर उसका स्नेह से भरा हाथ रखा होता है। तीज त्योहार पर नए कपड़े और चेहरे पर त्योहार सजाए पूरे घर को उल्लास से भर देती है। यहां भी रिश्ता तो ज़रूरत का ही है पर एक दूसरे के प्रति स्नेह और आदर इस रिश्ते को प्रगाढ़ कर देते हैं।
ये कहना गलत नही होगा कि हम एक दूसरे से ज़रूरत के लिए जुड़े हुए हैं। किसी से भावनात्मक सहारे की ज़रूरत है तो किसी से सुख सुविधाओं की. लेकिन हमारे रिश्ते तब बिखर जाते हैं जब ज़रूरतें मुँह फाड़कर बोलने लगती है या फिर हमारी केवल अपेक्षाएं ही रिश्तों को परिभाषित करने लगती हैं। असल मे ज़रूरते हमे एक दूसरे से मिलाती ज़रूर हैं पर हमें हमेशा के लिए जोड़े नही रख सकती क्योंकि हमेशा बेहतर विकल्प मौजूद होता है जिस से हमारी अपेक्षाएं और आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं। शायद इसीलिए आज परिवार छोटे होते चले जा रहे है, मनुष्य एकाकी हो रहा है क्योकि वो अपेक्षाओं के दबाव से डरता है । हम ऐसे विकल्प ढूंढने की कोशिश करते है जिस से जीवन में तनाव कम रहे और शांति ज्यादा।
रिश्तों को बनाये रखने के लिए कृतज्ञता का भाव होना बेहद ज़रूरी है। किसी और के द्वारा किया हुआ हमारा छोटा सा छोटा काम हमे उसके प्रति कृतज्ञ बनाता है। चाहे वो छोटा बच्चा भी क्यो न हो। ये भाव हम सब मे बना रहना चाहिए।
हम उसके ऋणी है। उसके प्रति हमारे मन में आदर और सम्मान की भावना हमेशा बनी रहना चाहिए। वहीं किसी की मदद करते समय अहंकार की भावना , स्वामित्व की भावना का भी विलोपन होना चाहिए। अपेक्षाओं का बोझ दूसरे के कंधों से हटाने के साथ ही खुद से भी हटा लेना चाहिए। तब जाकर शायद फिर से अपनों की महफिलें जमने लगे, किस्से, कहानियों और ठहाकों के दौर और आत्मीय स्नेह से भरे रंगों की रंगोलियां हर घर के आँगन में सजने लगे।
रिश्तों की रंगोली
एकता कानूनगो बक्षी
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। अन्य लोगों के बिना उसका जीवन संभव नहीं. समाज ही है जो मनुष्य की सभी प्रकार की ज़रूरतों को पूरा करता है। वह चाहे सुख-सुविधाओं की बात हो या मन की शान्ति की चाह या फिर अपनी संवेदनाओं, विचारों को दूसरों तक पहुंचाने की हार्दिक इच्छा. यह सब तब ही हो पाता है जब हम लोगों के बीच रहते हैं, अपने सुख-दुःख बाँट पाते हैं। हमारे ऋषि मुनि और अनेक साधक कुछ समय के लिए एकाकी रहकर जरूर साधना करते रहे हैं लेकिन वे भी आशा और विश्वास की ज्योति और ज्ञान का प्रकाश लिए इसी समाज के कल्याण के लिए लौट कर आते हैं. इंसान को भौतिक सुख सुविधाओं की ज़रूरत तो होती ही है किन्तु उससे कहीं अधिक भावनात्मक संबल की तलाश इसी समाज में बनी रहती है।
पुराने समय में साधन बहुत कम थे और अपनी जरूरतों की पूर्ती के लिए जद्दोजहत भी बहुत करनी पड़ती थी। डर अधिक थे इसलिए समूह भी बड़े होते थे। संयुक्त परिवार होते थे लेकिन समय के बदलाव और पारिवारिक जीवन शैली में परिवर्तन आने पर बिखरते रहे। हालांकि अभी भी कई संयुक्त परिवार अपवाद स्वरूप दिखाई देते हैं जो एक प्रकार की मिसाल कहे जा सकते हैं । आपसी समझ , सहनशीलता , स्नेह और आदर जैसे महान आदर्शो की नींव पर स्थापित परिवार ही लम्बे समय तक संयुक्त रह सकते है जहां हर सदस्य एक दूसरे से भावनात्मक और जैविक रूप से जुड़ा होने के बाद भी स्वतंत्र हो। किसी तरह की घुटन का यहां स्थान नही है। पर ऐसा होना आदर्श स्थिति है जो की दुर्लभ ही होगी।
संयुक्त परिवारों के अलावा भी एक विस्तृत कुटुंब होता था । घरों की दीवारों और छतों की उपस्थिति से भी रिश्तों का निर्माण हो जाता था। पडौसियों के परिवार हमारे अपने कुटुंब का हिस्सा होते थे। छतों पर पतंग उड़ाते और बड़ियाँ, पापड बनाती बहुएं और सासें सब उसी कुटुंब का हिस्सा होते थे. सबके सुख और दुख एक हो जाते थे। हालांकि ये स्थिति आज भी कहीं कहीं देखने को मिल जाती है. रिश्ते में प्रगाड़ता की चाह हो तो मकानों की मोटी दीवारें बाधक नहीं बन सकती।
अब स्थितियां बहुत बदल गईं हैं। खासतौर पर शहरों और महानगरों में कुटुंब तो क्या, संयुक्त परिवार तक नहीं रहे. बेटे और पिता के अपने अलग अलग परिवार होते हैं। यहां पड़ोसी तो है पर दरवाज़े तभी खोले जाते है जब दरवाज़े की घंटी बजाई जाए। महानगर है, मल्टी स्टोरी बिल्डिंग का फ्लेट है तो सुरक्षा की दृष्टि से दरवाज़े बंद रखना ज़रूरी है। बाप बेटे भी पड़ोसी की तरह अलग रहते हैं। अपने तो होते हैं कभी कभी आते है मिलते हैं मेंहमानों की तरह।
ऐसे में यहां सिर्फ एक इंसान नियमित घर के दरवाजे पर दस्तक देता है, बेल बजाता है। वह होती है घर पर काम करने वाली बाई। ये महरी केवल महरी नही हो कर घर की सदस्य जैसी ही हो जाती है। इस महरी में ही हमको हमारे बिछुड़े परिवार के सदस्य दिखाई देते हैं. माँ, दादी ,मौशी, बहन, और बेटी भी। और अगर आप मृदुभाषी है, उससे आत्मीयता से बात करते हैं तो वह भी स्नेह से आपको भिगो देती है। आपको गर्म-गर्म फुलके खिला माँ की याद दिला देती है, तो आपके बीमार हो जाने पर आपके सर पर उसका स्नेह से भरा हाथ रखा होता है। तीज त्योहार पर नए कपड़े और चेहरे पर त्योहार सजाए पूरे घर को उल्लास से भर देती है। यहां भी रिश्ता तो ज़रूरत का ही है पर एक दूसरे के प्रति स्नेह और आदर इस रिश्ते को प्रगाढ़ कर देते हैं।
ये कहना गलत नही होगा कि हम एक दूसरे से ज़रूरत के लिए जुड़े हुए हैं। किसी से भावनात्मक सहारे की ज़रूरत है तो किसी से सुख सुविधाओं की. लेकिन हमारे रिश्ते तब बिखर जाते हैं जब ज़रूरतें मुँह फाड़कर बोलने लगती है या फिर हमारी केवल अपेक्षाएं ही रिश्तों को परिभाषित करने लगती हैं। असल मे ज़रूरते हमे एक दूसरे से मिलाती ज़रूर हैं पर हमें हमेशा के लिए जोड़े नही रख सकती क्योंकि हमेशा बेहतर विकल्प मौजूद होता है जिस से हमारी अपेक्षाएं और आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं। शायद इसीलिए आज परिवार छोटे होते चले जा रहे है, मनुष्य एकाकी हो रहा है क्योकि वो अपेक्षाओं के दबाव से डरता है । हम ऐसे विकल्प ढूंढने की कोशिश करते है जिस से जीवन में तनाव कम रहे और शांति ज्यादा।
रिश्तों को बनाये रखने के लिए कृतज्ञता का भाव होना बेहद ज़रूरी है। किसी और के द्वारा किया हुआ हमारा छोटा सा छोटा काम हमे उसके प्रति कृतज्ञ बनाता है। चाहे वो छोटा बच्चा भी क्यो न हो। ये भाव हम सब मे बना रहना चाहिए।
हम उसके ऋणी है। उसके प्रति हमारे मन में आदर और सम्मान की भावना हमेशा बनी रहना चाहिए। वहीं किसी की मदद करते समय अहंकार की भावना , स्वामित्व की भावना का भी विलोपन होना चाहिए। अपेक्षाओं का बोझ दूसरे के कंधों से हटाने के साथ ही खुद से भी हटा लेना चाहिए। तब जाकर शायद फिर से अपनों की महफिलें जमने लगे, किस्से, कहानियों और ठहाकों के दौर और आत्मीय स्नेह से भरे रंगों की रंगोलियां हर घर के आँगन में सजने लगे।
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