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Monday, March 25, 2019

मनोविज्ञान की छांव ( 1 जनवरी 2019)

नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ जनसत्ता में आज मेरा लेख पढ़ें।

दुनिया मेरे आगे
मनोविज्ञान की छांव

एकता कानूनगो बक्षी

इन दिनों विद्यालयों,महाविद्यालयों में पारंपरिक विषयों के अलावा भी कई विषय भविष्य की ज़रूरतों को देखते हुए पढाए जा रहे हैं। जैसे कि अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं का प्रारम्भिक ज्ञान , प्राथमिक चिकित्सा की जानकारी , उद्यमिता विकास संबंधी कुछ अध्याय भी कुछ जगह शुरू किये गए हैं. इसके अलावा स्काउट,गाईड,समाजसेवा आदि के साथ एनसीसी से भी एक बेहतर नागरिक के निर्माण और विकास की दृष्टि से कई प्रशिक्षण कार्यक्रमों को भी नियमित रूप से शामिल किया जाता रहा है. कई संस्थाओं द्वारा तो घुड़सवारी , तैराकी, नृत्य, संगीत जैसी कई खेलों और कलाओं को भी अपने पाठ्यक्रम में स्थान देकर विद्यार्थी के उज्ज्वल भविष्य को सुनिश्चित करने के प्रयास किये जा रहे हैं।



इन सब के बावजूद एक बहुत ज़रूरी विषय जो हम सब से छूटता रहा है,वह है मनोविज्ञान। हालांकि इस विषय को स्वतन्त्र रूप से पाठ्यक्रम के प्रमुख विषयों के तौर पर चुनने के लिए सुविधा होती है और डिप्लोमा, डिग्री और पीएचडी तक मनोविज्ञान विषय में किया जा सकता है. लेकिन क्या अब यह वह समय नहीं है जब इसे भी नैतिक शिक्षा,खेलकूद,पूरक भाषाओं के ज्ञान की तरह हरेक स्तर पर साथ-साथ पढ़ाया जाना शुरू कर दिया जाना चाहिए? नीतिशास्त्र (मोरल साइंस) के रूप में एक पतली सी पुस्तिका से हमारा परिचय प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ज़रूर करवाया जाता है, जिसमे जीवन मूल्यों से लेकर सामान्य शिष्टाचार, लोक व्यवहार आदि जैसे  महत्वपूर्ण विषयों को कुछ समय मे घुट्टी पिलाकर पढ़ा भर देने की औपचारिकता संपन्न करा दी जाती है.यदि इस विषय की गंभीरता लिया जाता तो  समाज में आत्महत्या, निराशा, क्रोध, बलात्कार, शोषण, मोब लिंचिंग जैसी घटनाओं के समाचार आये दिन नहीं सुनने को मिलते।



हुआ कुछ यूं कि शार्ट-कट में सफलता प्राप्त करने के लिए हमने ऊपरी ढांचा तो बहुत मजबूत और आकर्षक बना लिया पर अंदर से सब खोखला रह गया। ज़रा सी विपरीत परिस्थिति हमें हिला देती है, विवेक और पर्याप्त सोच विचार और अच्छे-बुरे का अनुमान लगाए जल्दबाजी में गलत और आत्मघाती निर्णय ले लेते हैं. यह बहुत दुखद है कि वर्त्तमान शिक्षा व्यवस्था ने किताबी ज्ञान और स्वस्थ शरीर बनाने को तो प्राथमिकता में रखा लेकिन मन की मजबूती के लिए कुछ ख़ास नहीं किया गया. हमने शिक्षा के दौरान दुनियाभर के बारे में बहुत कुछ जान  लिया लेकिन हम खुद को ही नही समझ पाए। जब खुद को ही ठीक से नहीं समझा तो दूसरे के मन और उनकी भावनाओं को समझने की क्षमता का विकास तो बहुत दूर की बात है.

हम अक्सर देखते हैं कि कुछ लोग स्वयं तो प्रसन्न, संतुष्ट और खुश रहते ही हैं लेकिन अपने आचरण और व्यवहार से अन्यों के चेहरों पर पर भी मुस्कुराहट बिखेर देते हैं.  सामान्य से मनोविज्ञान का आम आदमी के जीवन मे कितना महत्व है उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है.

समर्थ और सम्पन्न परिवार के एक बुजुर्ग हैं, जिनकी देखभाल के लिए सब लोग जुटे रहते है, समय पर दवा , खान पान का ध्यान , अच्छे कपड़े , पर्याप्त साफ़ सफाई होने के बावजूद उनकी सेहत गिरती गई. ,अनेक डॉक्टरों को दिखाने के बाद भी ख़ास फर्क नहीं पडा। एक दिन उनके यहां उनके पुराने मित्र उनसे मिलने आये तो खूब पुरानी बाते हुईं, ठहाके लगे. परिणाम यह रहा कि  दूसरे दिन उनकी मेडिकल रिपोर्ट्स में काफी अंतर देखा गया। अगर घर के सदस्यों को बुजुर्ग सदस्य की मनःस्थिति थोड़ी बहुत भी समझ आए तो परिस्थिति काफी बेहतर हो सकती है। दवा के साथ कुछ पल सुख दुख की बातें, कुछ हँसी-मज़ाक, यह सब कितना जरूरी है हम सब जानते हैं. अगर आप में थोड़ी भी मनोविज्ञान की समझ है तो आप बीमार से कभी भी उसकी बीमारी संबंधी अधिक बातचीत नही करेंगे. उस से सब तरह की वे बात करेंगे जिससे उसके भीतर उत्साह का संचार हो सके और वे अपने आपको  बेहतर महसूस कर सकें।



घर के बच्चो के साथ भी हमारा व्यवहार तभी सही हो सकता है जब हमने थोड़ा बहुत बाल  मनोविज्ञान को समझने की कोशिश की हो । अक्सर देखा गया है माता पिता की नज़र बच्चे के किसी एक या दो पक्ष पर केन्द्रित हो जाती है जबकि समय के साथ कई बदलाव बच्चे में आते रहते हैं. उसके मनोभावों को समझना और उसके दोस्त बन कर रहना इसके लिए आपके अंदर बच्चे के मन को समझने की क्षमता होने की जरूरत है. जब आप खुद को ही नही समझ पा रहे हैं  तब उसकी मनस्थिति को समझना आपके लिए बहुत कठिन होगा।



हमारे यहां संस्थाओं में मानव संसाधन विकास विभाग होता है लेकिन बहुत कम ऐसी संस्थाएं है जहां यह विभाग कर्मचारियों  संबंधी आंकड़ों के व्यवस्थापन के अलावा अपने कार्मिकों के मन की क्षमताओं के विकास के लिए कुछ अलग से प्रयास करता होगा. ये एक ऐसा विषय है जिसमे लगातार सीखते और शोध करते रहने की ज़रूरत है। मनोविज्ञान की पढाई करने वाले विद्यार्थी भी अक्सर अपने ही मन की गुत्थी सुलझाने में सफल होने में सफल नहीं हो पाते. क्योकि मनोविज्ञान हमे खुद से और लोगो से जोड़ने का माध्यम होता है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सोचने समझने में दूसरों के कहे को ध्यान से सुनना भी बहुत महत्वपूर्ण बात होती है। केवल पुस्तकें पढ़कर हम मनोविज्ञान को समझ नहीं सकते हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम अच्छे श्रोता भी बन सकें। दूसरों को ही नहीं अपने भीतर की आवाज को भी गहरे उतर कर सुने। वह नही जो दुनिया आपसे कहलवाना या करवाना चाहती है पर वो जो आप स्वयं चाहते हैं। दूसरे को जब सुने तब सिर्फ उसके शब्दो को नही अर्थो को भी सुने उसके कारण और परिस्थिति को सुने, जो उसे ये सब कहने और करने को मजबूर कर रहा है ।परिणामस्वरूप आपके अंदर विवेकशीलता आएगी आप सही निर्णय लेंगे और क्रोध,आक्रोश भी खत्म  हो सकेगा।


अगर आप मनोविज्ञान की थोड़ी भी समझ रखते हैं तो उनकी परेशानियों को वास्तविकता से समझ उनकी हौसला अफ़साई करेंगे. आपके कर्मचारी अपना सर्वश्रेष्ठ संस्था को देने में सफल होंगें ।  इतिहास की तरफ नज़र डालें तो हमारे कई महापुरुषों को मिला जनसमर्थन इस बात को सिद्ध भी करता है. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के पीछे उनके अनेक साथी चलते थे क्योंकि उनमें दूसरे की मनःस्थिति समझने और मनोविज्ञान की गहरी समझ और क्षमता थी।

जब हम खुद के मन को और दूसरों के मन को, उनकी परेशानियों को समझ लेंगे तो हम और अधिक स्वाभाविक हो सकेंगे.  एक दूसरे का बेहतर ख्याल रख सकेगे, मनुष्य को मनुष्य की तरह देख पाएंगे, ज़िम्मेदार बनेगे.  गलत पूर्वाग्रहों से बचेंगे. शायद इसी तरह जीवन की कई मुश्किलों से बचा भी जा सकता है। बीता सो बीता कम से कम अब नया हो ।

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