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Thursday, March 21, 2019

हमारे लिए बेशकीमती उपहार की तरह है पर्यावरण के सारे घटक (6 जून 2018)

आज सुबह सवेरे में मेरा लेख पढ़ें।(6 जून 2018)

हमारे लिए बेशकीमती उपहार की तरह है पर्यावरण के सारे घटक
एकता कानूनगो बक्षी

अपनी छुट्टियों को आनंद के साथ अच्छी तरह से बिताने के लिए अक्सर हम प्रकृति का रुख करते हैं. जंगलों पहाड़ों,झरनों, नदियों और समुद्र के किनारों के साथ सुकून के कुछ पल बिताते हैं. प्रवासी, दुर्लभ और उस क्षेत्र के ख़ास पक्षियों और पशुओं, वन्य प्राणियों सहित वहां के स्थानीय जन जीवन के चित्र अपने कैमरों में सहेज लेने के लिए लालायित हो जाते हैं. हमारी वैकेशन एल्बम और स्म्रतियों में यही सब तो वहां से लेकर लौटते हैं। नहीं लौटते तो इस बात का जवाब और इसके पीछे छुपा सन्देश कि आखिर क्यों वहां का वातावरण हमारा मन मोह लेता है..और क्यों हमारे आसपास ही यह सब मौजूद नहीं हो पाता.... और क्यों नहीं कुछ ख़ास जगहें ही पर्यटन के लिए महत्वपूर्ण और लोकप्रिय बन जाती हैं.और लोग बार बार वहां जाना पसंद करते हैं...



पर्यावरण आखिर है क्या? हमारे आस पास मौजूद प्रकृति ,जीव जंतु, प्राणी ,हवा पानी,और मिट्टी से मिलकर जो परिदृश्य बनता है. जो हमें धरती पर ठीक से रहने की सुविधा प्रदान करता है. यही तो है पर्यावरण. जिसका शुद्ध,स्वच्छ होना हमारे तन, मन के स्वस्थ विकास के लिए बहुत जरूरी है. दरअसल पर्यावरण के सारे घटक प्रकृति और इस धरती की ओर से निस्वार्थ बल्कि यों कहें हमारे लिए बेशकीमती उपहार हैं. अगर हमारा पर्यावरण बीमार नहीं होगा तो हमारे भी स्वस्थ और खुशहाल होने के अवसर बड़ जाते हैं. आसपास के पर्यावरण में अपने दुर्गुणों के वायरस छोड़, हम अपने स्वास्थ्य की तलाश में पहाड़ों, नदियों, झीलों, अभयारण्यों और वन्य जीवन के बीच छुट्टियां बिताने चले आते हैं.



पर्यावरण और वास्तविक पर्यावरण के बीच की खाई इस दौर में कुछ अधिक गहराती जा रही है पर्यावरण के घटकों के बीच जो सन्तुलन होना चाहिए वह निरंतर गड़बड़ा रहा है. यह असुंतलन इतना भी अधिक न हो जाए कि जिस माहौल में हम रहते हैं उसी को वास्तविक पर्यावरण मान बैठें. धीरे-धीरे हमारे आम शहर और बस्तियों के पर्यावरण और पर्यटन स्थलों के पर्यावरण के बीच का अंतर भी कम होता जा रहा है. यदि आपने देखा होगा तो इन दिनों मैदानी इलाकों में पड़ने वाली गर्मी के लगभग बराबर गर्मी पहाडी स्थलों पर पड़ने लगी है. वृहद स्वच्छता अभियान के बावजूद समुद्र और नदियों के कई किनारों पर स्थित मंदिरों का कूढा करकट, फूल मालाएं, पूजा सामग्री आदि यहाँ-वहां बिखरी पडी दिखाई दे जाती है. दुर्गन्ध का असहनीय वातावरण वहां निर्मित हो जाता है. हालांकि कुछ चेतना अब हमारे समाज में आई है और शासन, प्रशासन भी अब कुछ ध्यान देने लगा है. फिर भी समस्या के बढ़ने के पहले सचेत रहना बहुत आवश्यक होगा.

इस बारे में कई बार कहा और लिखा भी गया है कि हमारी छोटी छोटी आदतों में बदलाव से हम अपने पर्यावरण का दृश्य ही बदल सकते है। लेकिन यह भी ठीक कहा जाता है कि सब से पहले अगर किसी बदलाव की ज़रूरत है तो उसकी शुरुआत हमारी मानसिकता के बदलाव की होगी।



इंसानी फितरत है कि जो चीज़ हमे बिना मेहनत और खर्च के मिल जाती है उसका हम बिना सोचे अपव्यय या दुरुपयोग करने लगते हैं। व्यापक अर्थों में कहें तो प्रकृति सृष्टि की ऐसी देन है जो हमे जन्म के साथ स्वतः ही मिल गयी है। इसका दोहन जन्म होते ही हम अनायास ही करने लगते हैं. पहली सांस लेते ही प्राणवायु खुद ब खुद बिना मांगे हमारे अंदर प्रवेश कर धरती पर हमारी अगवानी करती है , और इसके बाद तो हर छोटी से छोटी ज़रूरत के लिए हम प्रकति पर निर्भर होते चले जाते हैं. जीव जंतु पेड़ पौधे जड़ी बूटियां सब लग जाती है हमारा पोषण करने । शायद माँ की तरह ही प्रकृति में भी यह स्वाभाविक गुण होता है जो सब कुछ देकर, सहकर भी अपने बच्चों के भले का ही सोचती रहती है.



  मानव प्रजाति  की सबसे बड़ी ताकत उसका दिमाग है जो असम्भव को संभव बनाने में सक्षम है ।अनूठे आविष्कार करने में हम दक्ष है , पर हमसे भी गलतियाँ होती है. जब हम अपनी मर्यादा भूल जाते हैं,  क्षणिक सुख के लिए हम ये भूल जाते है कि असल मे हम उन मूल और प्राकृतिक तत्वों में बदलाव ला रहे है जिसका कोई विकल्प ही नही है. यहाँ तक कि उनके बिना हमारा जीवन ही नष्ट हो सकता है. ये सब सब हमारी बुद्धिमत्ता नही मूर्खता ही दर्शाती है। कैसी विडम्बना है कि आज फेस मास्क , वाटर प्यूरीफायर, एयर प्यूरीफायर जैसी चीजें ये सब रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुएं बनती चली जा रही हैं. क्योंकि हमने खुद ही हमारी हरकतों  से खुद को वेंटीलेटर पर लाकर रख दिया है । काश हमारे सारे कामकाज  और आचरण तात्कालिक लाभ और क्षणिक सुख को लेकर नही बल्कि पर्यावरण का ध्यान रखते हुए सार्वकालिक आनन्द के खातिर हो.



हम से काफी पहले से ये प्रकृति, जीव जंतु..आदिवासी, वनवासी, इस पृथ्वी पर रहते आये हैं. हम से पहले ये धरती इन सबकी भी है । हमने इन्ही की दुनिया पर अपना हक़ जमाने का प्रयास किया है. उनके ठिकानों को ध्वस्त करके अपनी एशगाहें खडी की हैं. पहाड़ों, नदियों, पेड़ो की बर्बादी से बस्तियां सजाईं हैं...

आज जो पक्षी हमारी बालकनी में आता है उसे हम शहरी लोग उसके लिए पानी का सिकोरा रख गौरवान्वित होते हैं. यह अच्छी बात है लेकिन ज़रा सोचिये असल में कभी वहां उसका बसेरा भी  होता होगा . जो गंदा-सा सा नाला हमारी सोसायटी के किनारे बहता है , कभी कितनों की ही प्यास बुझाता रहा होगा. हम घर के पोर्च में बर्ड हाउस बनाते  हैं जबकि जिस ज़मीन पर हमारा घर बना है उसी पर कभी बरगद का ऐसा पेड़ था,जिस पर हजारों पक्षी रात भर बसेरा करते थे. हम तो मात्र किराएदार हैं..  जिन्होंने बिना असली मालिक की मंजूरी लिए अवैध कब्जा जमा लिया है..इस अपराध का दंड तो जरूर मिलेगा...मिलने भी लगा है..

मौसम का मिजाज बदल रहा है, पृथ्वी दिनों दिन आग उगलने लगी है..ग्लोबल वार्मिंग, अनसोची प्राकृतिक आपदाएं, बिन बुलाये खतरनाक वायरस, लाइलाज बीमारियाँ.. ये सब क्या है.. हमारे अपराध की सजाएं ही तो हैं.  हमारे साथ साथ अबोध शिशु और जानवर भी इसका शिकार हो रहे हैं..



सच तो यह है कि हम सब प्रकृति का ऋण चुकाने में कोताही करते रहे हैं.

कोशिश की जाए तो भी इस ऋण को चुकाया नहीं जा सकता लेकिन पर्यावरण रक्षा के छोटे छोटे प्रयासों से अपनी साख जरूर बचाई जा सकती है.

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