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Wednesday, October 16, 2019

एक ख़त रात ग्यारह बजकर दस मिनट पर

स्मृति यात्रा:

एक ख़त रात ग्यारह बजकर दस मिनट पर
एकता कानूनगो बक्षी





जीवन के कुछ पल हमारे लिए अनमोल हो जाते है ऐसा लगता है हमारे जीवन की परिभाषा यहीं से शुरू होती हो। अभी वह जैसे कल ही का दिन लगता है जब अख़बार में पढ़कर मम्मी ने बताया था कि आकाशवाणी इंदौर मे केसुअल एनाउंसर का ऑडिशन होने वाला है. , लगा  कि बस जैसे बचपन का सपना ही सामने आ खडा हुआ था, तो बिना दूसरी बार सोचे आकाशवाणी केंद्र पर नियत दिन ऑडिशन देने चली गयी।



यह स्वीकार करने में मुझे कुछ  संकोच नहीं है कि ऑडिशन देने से पहले मैंने कभी ठीक से रेडियो अनाउंसमेंट नहीं सुने थे। मैं तो रेडियो सुनते समय बस डांस वाले हाई नोट्स बीट्स वाले गानों का इंतज़ार करती थी और उन पर रोज़ एक घंटा डांस करती थी या फिर धीर गंभीर और रोमांटिक गानों पर कुछ एक्टिंग जैसा करती रहती थी। मेहनत और लगन से अच्छे नम्बरो से परीक्षाएं पास करने के बाद भी असली खुशी मुझे डांस,एक्टिंग, प्रोग्राम संचालन,लेखन,पठन,रोल प्ले में ही आती थी, इसलिए यह तो पता था कि मुझे भविष्य में शायद इसी दिशा में जाना है। मन तो यही चाहता था।



आकाशवाणी के ऑडिशन में कई बातें पूछी गईं जिसमे एक मुझे अभी तक याद है। रिकॉर्डिंग रूम में एक चेयर लगी हुई थी। पूरा रूम खाली था। मुझे सिर्फ सवाल सुनाई दे रहे थे और कोई दिखाई नही दे रहा था। ये रेडियो से जुड़ी सब से पहली चुनौती थी जब बिना देखे आपको संवाद करना होता है। जिस से पहली बार मेरा सामना हुआ।। मुझ से पूछा गया कि आप रेडियो एनाउंसर क्यों बनना चाहते हैं। उसके जवाब में मैंने काफी बातें कही, जैसे  की आकाशवाणी जैसी प्रतिष्ठित संस्था से जुड़ना. जिसका इतिहास, ध्येय, सूत्र, सब कुछ अनुकरणीय है। इसके बाद एक वाक्य पर मैं अटक सी गयी मैंने कहा क्योंकि मुझे तो बस यही करना है और उसके बाद मैंने दोबारा भी अधिक जोर देकर से फिर से वही बात कही। ‘सर, मुझे बस यही काम करना है।‘ मैं खुद आज भी इस बात पर अचरज करने लगती हूँ  कि कैसे वह वाक्य और वह जिद मेरे अन्तःकरण से सहज ही निकल गयी थी।



आकाशवाणी इंदौर से जब रेडियो का सफर शुरू हुआ तो लगने लगा जैसे ट्रेनिंग के दौरान ही मेरे व्यवहार और व्यक्तित्व में बदलाव सा आने लगा हो, चीज़ों को देखने का नज़रिया ही बदल गया। तत्कालीन कार्यकारी निदेशक श्री शशिकांत व्यास सर और सुश्री मधुकौर मैडम ने इस तरह से ट्रेनिंग दी जैसे कि वो मेरे पूरे जीवन को ही संवारनें का सबक दे रहे हों। व्यास सर जिस तरह समझाते थे, लगता था जैसे अपने ही घर के कोई बड़े बैठकर शांति से आपको समझा रहे हों, वे कहते थे आचरण में हमेशा विनम्रता को महत्व दो, बोलने का सही तरीका रखो। श्रोताओ को ईश्वर का दर्जा देने की बात रही हो या फिर सामने वाले के गुस्से पर शीतल वाणी की फुहार वाला आचरण। ऐसे अनगिनत पाठ उन्होंने मुस्कुराते हुए ही सिखा दिए और ये सुनिश्चित कर दिया कि यदि लोगों का मन जीतना है तो भविष्य में मेरा हर कदम सुविचारित और विवेकपूर्ण रहे।



वहीं मधु मैडम ने हौसला,हिम्मत, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के पाठ पढ़ा दिए। मुझे अभी भी याद है जब ट्रेनिंग के बाद लाइव प्रोग्राम देने का समय आया तब हम सब घबरा रहे थे पर मधु मैडम ने हमे हिम्मत दी हमारे अंदर का विश्वास जगाया। आज प्रोग्राम देने में या फिर जीवन मे कुछ छोटे-बड़े निर्णय लेने का जो भी आत्मविश्वास बन पाया है वह मैं कह सकती हूँ उसमे मधु मैडम की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।



जब हम आकाशवाणी से जुड़ते हैं तब हम सिर्फ एक संस्था से नहीं जुड़ते, हम एक परिवार से जुड़ जाते हैं। यह हमें संस्कार देती है। और बस ऐसा ही कुछ हुआ जब मैं इस परिवार के बाकी सदस्यों से मिली, जिन्हें मैं कभी भी अपने सीनियर या बॉस नहीं मान सकी, उनको मैं अपने परिवार का सदस्य ही मानती रही। क्योकि उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया, और वो भी बहुत आत्मीयता के साथ। टेक्निकल बातें हो, या भाषा और सही उच्चारण की समझ, संगीत, फिल्मो की बाते या फिर अच्छे प्रोग्राम देने के गुर,एक बहुत सुखद परिवेश मुझे आकाशवाणी में काम करते हुए इन सब ने दिया। इन सबके प्रोत्साहन की वजह से बेझिझक  जितनी भी संभव रही उड़ान भर सकी।  शालिनी मैडम,अनुराधा मैडम, मोना मैडम, रीना मैडम, संतोष अग्निहोत्री सर, सुधीर तेलंग सर , आसिफ सर, संजीव सर, विजय सर , विद्याधर मुले सर,और भी बहुत से आत्मीय साथी और वरिष्ठ लोग याद आते रहते हैं. 

और इनके अलावा बहुत अच्छे और प्रतिभाशाली दोस्त ऋचा,प्रतिमा,समता,उदिता को कैसे भुलाया जा सकता है।



जब प्रोग्राम होते थे तब घर मे उत्सव का माहौल रहता था. सुबह 4 बजे उठकर मम्मी मेरे लिए नाश्ता तैयार करती और तड़के पापा मुझे स्टूडियो छोड़ कर आते थे। प्रोग्राम होने पर बात खत्म नही हो जाती थी। पापा मेरे लाइव प्रोग्राम घर पर रिकॉर्ड करते। आने वाले दो दिनों तक उसकी समीक्षा की जाती। मेरी गलतियों को सुधारा जाता। यह भी सच है कि आज तक एक भी ऐसा प्रोग्राम में नही दे पाई जिसमे मुझे संतुष्टि हो पाई हो। कुछ न कुछ गलती हर बार हो ही जाया करती थी।



इस बीच शादी तय हो गयी। मैं ने अपनी कोर्टशिप के दौरान संकल्प से लगभग रेडियो की ही बाते की, वह भी मेरे साथ पूरे समय रेडियो के मेरे हमसफर बने रहे।



शादी के बाद जब इंदौर मुझ से छुटा तो मेरे लिए वह घड़ी बहुत कठिन थी। पर मुझे नही पता था की मुंबई में कभी भी किसी के पैर नही थमते है, हर यात्री का वह स्वागत करती है। हालांकि इंदौर से ट्रांसफर सीधे आकाशवाणी के चर्च गेट केंद्र पर हुआ जो कि मेरे ससुराल मलाड से काफी दूर था। इंदौर में स्कूटी से कुछ मिनटों में दूरी तय करने वाली मैं अचंभित थी जब चर्च गेट लोकल ट्रेन का सफर पहली बार किया. वहां जो सर मिले उन्होंने मुझे राय दी कि क्योकि आपका घर काफी दूर है तो आप रात का प्रोग्राम कर सकती हैं और फिर यहाँ रात्रि विश्राम व ठहरने की व्यस्था भी है. सुबह का प्रोग्राम कर के आप घर लौट सकती हैं। मुझे पता था कि यह सब मेरे बस की बात नहीं है। तो बस चर्च गेट की भेल और पानी पूरी का मज़ा ले कर घर लौट आई।



फिर पता चला कि विविध भारती तो बोरीवली में ही है जो कि घर के बहुत करीब है और फिर एक और सरप्राइज मिला कि वहा ऑडिशन होने वाला है. वह भी मेरे जन्मदिन पर. फिर क्या था रेडियो की मेरी गाड़ी फिर चल निकली।



आज तक जिनको इंदौर के स्टूडियो से रिले किया, जिनकी आवाज़ और बोलने का अंदाज़ मेरे लिए आदर्श था, आज उन्ही सब के सामने पहुंचकर प्रफुल्लित थी। आँख बंद करके केवल आवाज सुनकर बता सकती थी कि ये रेणु बंसल मैडम है, अमरकान्त सर , कमल शर्मा सर, ममता मैडम, यूनुस खान सर हैं। पर आज इन सब से रूबरू हो रही थी। कुछ दिन मुझे दिए गए यहां के काम को सीखने समझने के लिए। रोज सुबह तैयार होकर स्टूडियो पहुच जाती और स्टूडियो में लाइव प्रोग्राम के वक्त आप सब को ओब्सर्व करती। यहां भी वही इंदौर वाली समानता लगी कोई बॉस या सीनियर नही लगे। सब अपने ही लगे वही आत्मीयता और एक दूसरे के सम्मान वाला व्यवहार।



असल में सबको पहले ही सुनती आयी थी पर सीखना था तो उनका एटीत्युड attitude जिस के कारण वो इतने सफल और प्रभावशाली कार्यक्रम दे पा रहे थे ।  सब से पहले मुलाकात रेणु बंसल मैडम और अमरकान्त सर से हुई। बहुत सारी बाते हुई।  रेणु मैडम ने चाय के लिए पूछा। वो अपनी अलमारी में मिल्क पाउडर शुगर टी सब रखते थे। मैंने हिचकते हुए नहीं कहा तो उन्होंने हक से कहा ‘क्यो नही पीयोगी चाय? चलो आओ हमारे साथ बैठो, साथ मे चाय पीते है’ ।बस उस दिन मुम्बई का  विविध भारती रेडियो स्टेशन भी अपना सा हो गया।



फिर मेरी मुलाकात रेडियो सखी ममता मैडम से हुई। मैडम भी उस दिन एक लबे अंतराल के बाद प्रोग्राम देने वाली थी। जनाब जादू के आगमन के बाद शायद यह उनका पहला प्रोग्राम था। उनसे मिलने से पहले मैं काफी नर्वस थी, पर जब उनसे मिली उनके सौम्य , सरल और मृदुभाषा ने मुझे मुग्ध कर दिया और एक बार फिर मेरा विश्वास इस बात पर बढ़ गया कि जो पेड़ जितना फलों से लदा होता है उनता ही विनम्र होता है। बहुत कुछ सीखा उनसे छोटी छोटी बातें भी उन्होंने मुझे अपना समझ कर बिना पूछे बताई। और फिर अगले प्रोग्राम में कमल शर्मा सर आने वाले थे, उन्हें भी उन्होंने ही मेरा परिचय भी कराया।

कमल शर्मा सर मेरे सामने खड़े थे। प्रतिभा सम्पन्न ऐसे व्यक्तित्व से परिचय हुआ जो बहुत विनम्र थे। उनके आने से पूरे स्टूडियो में अलग ही ऊर्जा का संचार हो जाया करता था।



उसके बाद मैंने सीखा यूनुस सर से उस समय उन्होंने  ‘इना मीना डीका’ गाने का फिलर बहुत तेज आवाज़ में लगा रखा था। ऊर्जा से भरपूर माहौल था। फिलर को फेड आउट करते हुए उतनी ही ऊर्जा से भरपूर और बुलंद और अपनी ख़ास आवाज़ में उन्होंने अपने प्रोग्राम का आगाज़ किया। उनसे सीखा कि कैसे अपने काम में अपना 100 प्रतिशत या शायद उससे भी अधिक दिया जा सकता है।



कुछ समय के लिए मुझे एनाउंसर की जगह वहां श्रोता बना रहना बहुत रास आने लगा था लेकिन तभी मेरे सम्मोहन को तोड़ मेरी डयूटी लगा दी गयी। जयमाला, जैसे लोकप्रिय कार्यक्रम को आवाज़ देने का मौका मिला। उस दौरान रात के प्रोग्राम में मुझे नाम याद नही आ रहा लेकिन हमारी जो डयूटी ऑफिसर रहती थी वह मुझे फ़ोन करके खुद बुलाती थी क्योंकि मैं अपने काम मे इतनी तल्लीन हो जाती कि मुझे खाने का ध्यान ही नहीं रहता। वे  कहतीं ‘बस एकता अब रिकॉर्डेड है, एक फिलर बाद में लगा कर आ जाओ, पहले खाना खाओ बाकी काम बाद में।‘ उस वक्त कितना स्नेहपूर्ण महसूस करती थी, शब्दों में बयान नहीं कर सकती लेकिन ऐसे ममत्व भरे व्यवहार के कारण काम के प्रति मेरी आस्था और बढ़ जाती थी।



फिर ट्रांसफर हुआ नवाबो के शहर और हाई टेक सिटी हैदराबाद में। स्टूडियो घर से करीब 20 किलोमीटर दूर था. अभी तक की सब से अधिक दूरी और ज्यादा अखरने लगी जब दो-दो  बार स्टूडियो जाने के बाद, खाली हाथ लौट आना पड़ा। पर ये मेरे लिए नई बात नहीं थी। कुछ दिनों बाद पता चला कि वहाँ ऑडिशन होने वाले है। इस बार तो मेरे पास इंदौर और मुम्बई दोनों का अनुभव था। बहुत सहजता से मेरा सिलेक्शन हो गया। पर अब बारी थी फिर से अपने आप को सिद्ध करने की जो थोड़ा टेड़ा काम था। पहले प्रोग्राम पर मेरे मुम्बई के अनुभव का प्रभाव रहा। मेरे प्रोग्राम्स का स्तर वहां के प्रोग्राम से मेल नही खाया हालांकि श्रोताओ को बहुत पसंद आया पर मेरी इंचार्ज वसुमती मैडम ने मुझे हिदायत दी कि ‘आइलैंड मत बनो।‘

ऐसा मेरे साथ पहली बार हुआ। मैंने वहां के शोज़ को खूब सुना और फिर मुझे समझ आया की मैं कहाँ गलती कर रही हूँ। हैदराबाद के स्टेशन की ज़रूरत थी कि मैं अपने आप को उद्घोषक से थोड़ा बदल कर आज के दौर के ‘रेडियो जॉकी’ के रूप में बदल दूँ।

अपने उसूलों को संभालते हुए, मैंने फिर नया गेटअप लिया, अपने को संशोधित किया। पर पुराने सिखाये सबक से किनारा नही किया। आकाशवाणी के मूल्यों के साथ परिपक्व प्रोग्राम दिए बस थोड़ा अलग अंदाज में। श्रोताओ के साथ लाइव प्रोग्राम करते हुए बहुत स्नेह और बहुत कुछ सीखने को मिला। उस वक्त मेरी आँखें भर आईं जब हैदराबाद के स्टूडियो को छोड़ते समय वसुमती मैडम ने मुझे ‘एसेट’ कहा।



और अब इस समय पुणे में हूँ। शुरुआत में यहां भी ट्रांसफर होने के बाद काम नही मिला।

कई बार गयी स्टूडियो, खाली हाथ आयी। फिर एक दिन एक पत्र लिखा डायरेक्टर साहब के नाम। और कुछ दिन बाद वहां से फ़ोन आया। फोन पर थे खड़किकर सर. चिरपरिचित विनम्र संतुलित आवाज़। समझ आ गया कि यह तो यहाँ भी एक बार फिर वही आकाशवाणी है। सर ने मुझे बताया ‘कलश’ नाम का हिंदी का प्रोग्राम आ रहा है। आप स्टूडियो आइये। स्क्रिप्ट आदि सब लेकर। मैं बहुत खुश हो गयी। मैंने उन्हें बहुत शुक्रिया कहा तो उन्होंने और विनम्र होकर कहा कि ‘हम लेट हो गए आपको तो पहले ही बुला लेना था।‘ पहला प्रोग्राम हुआ, आधा घंटे के प्रोग्राम की जगह सर ने मुझे 1 घंटे का प्रोग्राम दिया। बाकी लोगो से मेरा परिचय कराया। सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फुले पर केंद्रित रोल प्ले में मुझे और संकल्प दोनों की आवाज़ को स्थान देकर हमारे लिए वह शो उन्होंने यादगार बना दिया। उसके बाद प्रदीप सर के साथ काम करने को मिला। जिन्होने मुझ पर बहुत विश्वास रखा। जीवन मे पहली बार साक्षात्कार और चर्चाएं की। राष्ट्रीय प्रसारण में जो कि प्रसारित हुए।

पुणे मे रेडियो के अलग आयाम को छूने का मौका मिला। और अभी भी उम्मीद है कि काम मिलता रहेगा।



आप पूछ सकते हैं कि बिना वजह यह लेख लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी?  इसलिए बिलकुल नहीं कि मैं अपनी रेडियो यात्रा आपको बताना चाह रही थी। दरअसल इस का कारण कुछ यूँ रहा कि अभी दशहरे पर मेरा इंदौर जाना हुआ जहां मम्मी पापा सुबह से रात तक पूरे समय रेडियो पर ‘विविध भारती’ चला कर रखते हैं। और दूसरा कारण हैं अनिता दुबे जी, उनकी प्रस्तर कला पर मैं मुग्ध हो गयी हूँ। उसे बनाने का उनका ख़ास अंदाज़, जिसमें बैकग्राउंड में ‘विविधभारती’ बजता रहता है। मुझे बार बार स्मृतियों में ले जाता है। कल शाम मैंने भी रेडियो एप्प पर लगाया और सुनती रही, रेडियो बंद करने के बाद भी मेरे मन में स्मृतियो का  रेडियो बजता रहा।



रेडियो, आकाशवाणी,से जुड़ने का घटनाक्रम और लोग, उनसे जुड़ी मेरी यादें, किसी फ़िल्म की तरह लगातार रिवाइंड और फारवर्ड होती रही। इसलिए आज सोचा  की क्यों ना आप सबको लगे हाथ शुक्रिया दे दूँ।

आप सब ने मेरे जीवन को आकार दिया है और दूसरा एक शिकायत भी थी कि आप सब के स्नेह के कारण अक्सर जब भी रेडियो सुनती हूँ मेरी नींद उड़ जाती है। यह सब लिखने के बाद शायद अब नींद आ जाये।

जय हिन्द।













एकता

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