संस्मरण
उम्र के बंधनों से मुक्त रिश्तों की महक
छोटे बड़े में उम्र का अंतर समझना हमेशा से मेरे लिए मुश्किल ही रहा है। रहता भी क्यूँ नही, बचपन से ही बड़े और छोटे उम्र के अंतर करने की समझ ठीक से विकसित ही न जो हो सकी।
अब देखिए ! पंद्रह वर्ष से भी ज्यादा बड़ी मेरी दीदी मुझे मेरी दोस्त लगती थी, और छह साल बड़े भैया को मै अपने छोटे भाई की तरह प्यार करती और उनका हमेशा ख़याल रखती थी।
दादी अक्सर कहती कि मैं तो उनकी गुरु हूँ, मेरीे छोटी सी सलाह भी उनके बड़े काम आती थी। और दादी की मम्मी जिनका तकियाकलाम भी गजब का था "आप समझो साहब "को मैं पहली कक्षा में पढ़कर आने के बाद घर पर 'अ' अनार का सिखाया करती थी। बाद में पता चला कि वो तो खुद प्राइमरी टीचर रहीं थी। उन्होंने गजब की एक्टिंग की और 'आप समझो साहब' मुझे इस तरह की समाज सेवा करने के संतोष को महसूस करने का अवसर भी दिया।
दादाजी के लिए तो मै उनकी प्यारी गुड़िया थी और लाड़ से मुझे वे 'गनिया' बुलाते थे। उन्हें जो भी सिखाना होता था तो सोने से पहले रात की कहानियों के माध्यम से सिखा देते थे। उसके साथ ही मेरी हर छोटी से छोटी बात भी मानते ।मैंने भी उनकी सब बातों को कंठस्थ कर रखा था।उन्होंने मुझे सिखाया था खूब हवा खाना , खूब पानी पीना और खूब चलना । उनकी बातों को मानने की जिद के कारण मम्मी को कई किलोमीटर दूर मेरे स्कूल पैदल चलकर मुझे छोड़ने और लेने जाना पढता था । मैं स्कूल के तांगे में कभी नहीं बैठती।
घर के अन्य बच्चों की भी मै बहुत बड़ी दीदी बना करती थी। दो या तीन साल बड़े होने के बाद भी वो मेरी बात बहुत मानते थे । मैं जो कहती वह बिना विवाद करते।मेरे साथ बैठ कर खाना खाने की जिद्द से लेकर , मेरे द्वारा बनाये सब बेतुके खेलों में हमेशा बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते।
चाची को चाची जान तो कभी 'चाची 420' कह कर बुलाती पर अपने नाम की तरह वो सिर्फ स्नेह ही बरसाने लगतीं। प्यार को प्यार की तरह ही स्वीकार किया जाता था।
सबसे छोटी थी फिर भी इतना सम्मान मिलता रहा था बचपन से ।शायद वो सब मुझ से प्यार करते थे या फिर कोई रौब था शायद मेरा ।पता नहीं।
पापा क्रिटिक थे तो मै भी किसी विपक्षी दल के नेता से कम न थी। वाद विवाद के बाद ही मुझे उनकी कोई बात समझ आती थी ,किसी तरह के समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती थी , पर उसके चलते मेरी सारी उलझनें सुलझती गईं।
मम्मी तो कभी भी मुझ से बड़ी थी ही नहीं। मुझ से ज्यादा घर में उनकी रौनक रहती। दिनभर भर मुस्कुराते गाते सबकी ज़रूरते पूरी करने में लगी रहती और उसके बावजूद पता नहीं कैसे मेरी धाराप्रवाह बातों को सुन ने के लिए भी तैयार हो जाती। अब तक की मेरी सब से अच्छी और धैर्यशाली श्रोता शायद वही है ।
अफ़सोस! समस्या वहीं के वहीं रह गयी ।मुझे समझ ही नहीं आया की कौन मुझ से बड़ा है और कौन छोटा । दादी दादा अगर बड़े है लेकिन मम्मी इतने प्यार से उन्हें खाना खिलाती है उनकी देखभाल करती है,तब लगता है जैसे वो उनकी भी मम्मी हो । मम्मी पापा एक दूसरे से बहुत सम्मान और प्यार से बातें करते है उन दोनो में से कौन बड़ा है पता ही नहीं चलता। और सबसे ज्यादा प्यार और सम्मान तो मुझे मिलता है मतलब.... उफ़!! बहुत असमंजस है....!
आज तक मुझे इस परिवार का पदक्रम समझ ही नहीं आया कौन बड़ा है , कौन छोटा है। घर के नियम भी कोई ऐसा भेद नहीं करते। पर हाँ एक ऐसा वातावरण ज़रूर मिला हैै ,जो ईमानदारी, नेकी, प्यार ,सम्मान और एक दूजे का ध्यान रखने की महक से ओतप्रोत है।
एकता
उम्र के बंधनों से मुक्त रिश्तों की महक
छोटे बड़े में उम्र का अंतर समझना हमेशा से मेरे लिए मुश्किल ही रहा है। रहता भी क्यूँ नही, बचपन से ही बड़े और छोटे उम्र के अंतर करने की समझ ठीक से विकसित ही न जो हो सकी।
अब देखिए ! पंद्रह वर्ष से भी ज्यादा बड़ी मेरी दीदी मुझे मेरी दोस्त लगती थी, और छह साल बड़े भैया को मै अपने छोटे भाई की तरह प्यार करती और उनका हमेशा ख़याल रखती थी।
दादी अक्सर कहती कि मैं तो उनकी गुरु हूँ, मेरीे छोटी सी सलाह भी उनके बड़े काम आती थी। और दादी की मम्मी जिनका तकियाकलाम भी गजब का था "आप समझो साहब "को मैं पहली कक्षा में पढ़कर आने के बाद घर पर 'अ' अनार का सिखाया करती थी। बाद में पता चला कि वो तो खुद प्राइमरी टीचर रहीं थी। उन्होंने गजब की एक्टिंग की और 'आप समझो साहब' मुझे इस तरह की समाज सेवा करने के संतोष को महसूस करने का अवसर भी दिया।
दादाजी के लिए तो मै उनकी प्यारी गुड़िया थी और लाड़ से मुझे वे 'गनिया' बुलाते थे। उन्हें जो भी सिखाना होता था तो सोने से पहले रात की कहानियों के माध्यम से सिखा देते थे। उसके साथ ही मेरी हर छोटी से छोटी बात भी मानते ।मैंने भी उनकी सब बातों को कंठस्थ कर रखा था।उन्होंने मुझे सिखाया था खूब हवा खाना , खूब पानी पीना और खूब चलना । उनकी बातों को मानने की जिद के कारण मम्मी को कई किलोमीटर दूर मेरे स्कूल पैदल चलकर मुझे छोड़ने और लेने जाना पढता था । मैं स्कूल के तांगे में कभी नहीं बैठती।
घर के अन्य बच्चों की भी मै बहुत बड़ी दीदी बना करती थी। दो या तीन साल बड़े होने के बाद भी वो मेरी बात बहुत मानते थे । मैं जो कहती वह बिना विवाद करते।मेरे साथ बैठ कर खाना खाने की जिद्द से लेकर , मेरे द्वारा बनाये सब बेतुके खेलों में हमेशा बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते।
चाची को चाची जान तो कभी 'चाची 420' कह कर बुलाती पर अपने नाम की तरह वो सिर्फ स्नेह ही बरसाने लगतीं। प्यार को प्यार की तरह ही स्वीकार किया जाता था।
सबसे छोटी थी फिर भी इतना सम्मान मिलता रहा था बचपन से ।शायद वो सब मुझ से प्यार करते थे या फिर कोई रौब था शायद मेरा ।पता नहीं।
पापा क्रिटिक थे तो मै भी किसी विपक्षी दल के नेता से कम न थी। वाद विवाद के बाद ही मुझे उनकी कोई बात समझ आती थी ,किसी तरह के समझौते की कोई गुंजाइश नहीं होती थी , पर उसके चलते मेरी सारी उलझनें सुलझती गईं।
मम्मी तो कभी भी मुझ से बड़ी थी ही नहीं। मुझ से ज्यादा घर में उनकी रौनक रहती। दिनभर भर मुस्कुराते गाते सबकी ज़रूरते पूरी करने में लगी रहती और उसके बावजूद पता नहीं कैसे मेरी धाराप्रवाह बातों को सुन ने के लिए भी तैयार हो जाती। अब तक की मेरी सब से अच्छी और धैर्यशाली श्रोता शायद वही है ।
अफ़सोस! समस्या वहीं के वहीं रह गयी ।मुझे समझ ही नहीं आया की कौन मुझ से बड़ा है और कौन छोटा । दादी दादा अगर बड़े है लेकिन मम्मी इतने प्यार से उन्हें खाना खिलाती है उनकी देखभाल करती है,तब लगता है जैसे वो उनकी भी मम्मी हो । मम्मी पापा एक दूसरे से बहुत सम्मान और प्यार से बातें करते है उन दोनो में से कौन बड़ा है पता ही नहीं चलता। और सबसे ज्यादा प्यार और सम्मान तो मुझे मिलता है मतलब.... उफ़!! बहुत असमंजस है....!
आज तक मुझे इस परिवार का पदक्रम समझ ही नहीं आया कौन बड़ा है , कौन छोटा है। घर के नियम भी कोई ऐसा भेद नहीं करते। पर हाँ एक ऐसा वातावरण ज़रूर मिला हैै ,जो ईमानदारी, नेकी, प्यार ,सम्मान और एक दूजे का ध्यान रखने की महक से ओतप्रोत है।
एकता
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