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Tuesday, December 12, 2017

जनसत्ता 10 मई 2017

लेख
मौसम के पूर्वानुमान और हमारा जीवन

मौसम के बारे में यों तो सरकारी विभाग और वैधशालाएं सूचनाएँ उपलब्ध कराते हैं. वर्ष के दौरान कैसी बारिश होगी, गर्मियों में अधिकतम तापमान क्या होगा, पहाड़ों की बर्फ किस गति से पिघलेगी, कितना ठिठुरेंगे मैदानी रहवासी सर्दियों के मौसम में, समुद्री तूफानों का मिजाज कैसा रहेगा तटीय क्षत्रों में आदि आदि. लेकिन मैं जो बात करना चाह रही हूँ वह थोड़ी इससे अलग हटकर है. तमाम जानकारियों और सूचनाओं के बावजूद अनेक धरती-पुत्र मौसमों से जूझते रहते हैं. मौसम की सूचनाएँ और अनुमान भी कई मर्तबा गलत साबित हो जाते हैं.  

अक्सर सोचती हूँ मौसम के मिजाज और परिवर्तन का शुरुआती अनुमान किस तरह इन ख़ास लोगों को होता होगा जिनके रोम-रोम में प्रकृति की खुशबू बसी होती है. किसे सबसे पहले नए मौसम के आगमन की आहट सुनाई देती होगी .(हालांकि वैज्ञानिको की पैनी नज़र हमेशा जुटी रहती है अपने यंत्रो से अनुमान लगाने की) फिर भी एक आम आदमी की  अपनी समझ भी जरूर होती है जिससे वह प्रकृति के बदलते स्वरूप का अंदाजा लगा लेता है और अपने जीवन और अपने आपको तैयार करने में जुट जाता है.

दूर दराज़ के गाँवो में मौसम की जानकारी टीवी चैनलरेडियो  के माध्यम से मिले उससे पहले ही वहाँ के रहवासी मौसम के मिजाज़ का अनुमान लगा लेते हैं. तभी तो घर के बच्चे दौड़ कर छत से सारे सूखे कपड़े उठा लाते है , बारिश के आगमन से पहले। दूर से आ रही मिट्टी की सौंधी खुशबू भी संदेशा पहुचा ही देती है कि बस अब बरखा बहार आने ही को है.

कुछ लोगो का तो जीवन ही पूरी तरह से मौसम के बदलाव पर निर्भर करता है. मौसम के बदलाव का पूर्वानुमान उनके सुख ,दुःख, उत्साह , जन्म , मृत्यु , त्यौहार, उत्सव आदि का निर्धारण और रणनीति बनाने में बहुत मदद करता है.   

गर्मी की भनक सब से पहले शायद उस मजदूर या किसान को मिलती होगी जो भरी धूप में रोज़ की  तरह अपने जीवन यापन के लिए कुछ रुपये जोड़ने की कोशिश में लगा होगा. जनवरी, फरवरी की दिलकश धूप से अचानक परिवर्तित   अग्नि की लपटों को उसी के शरीर ने महसूस किया होगा. पसीने का पहला रेला उसके सर से बह कर गुज़रता होगा तब ही उसने अनुमान लगा लिया होगा कि इस बार गर्मी का पारा ज्यादा कूद लगाएगा. और आने वाले दिन और भी भारी रहने वाले होंगे । जब किसान की आँखें जब अपनी फसल को आंसू बहाते बेहाल देखती होंगी, उसके माथे पर खिंच आईं चिंता की लकीरें गुज़री हुई कई ऋतुओं  की कहानी बयां कर देती होगी .
प्रत्येक मौसम अपने आप में रोमांचक होता है। गर्मी हो, बारिश हो या फिर कंपकपाता शीतकाल, जायकेदार खाने-पीने के इंतज़ार में भी पूर्वानुमान बड़ी मदद करता है. बरसात की आहट से स्वादिष्ट पकौड़ियों के लिए तेल-बेसन आदि की व्यवस्था, ठण्ड के दिनों में  गर्मा गर्म गरिष्ठ भोजन का आनंद केवल इसी मौसम में आता है कई तरह की सब्जियों की उपलब्धता और पाचन शक्ति भी दुरुस्त रहती है इस मौसम में. गोंद, मैथी दाना और दालों के लड्डुओं की ख़ास तैयारियां होने लगती हैं हमारे घरों में.  रजाई में दुबके रहने का प्यारा मौसम... लेकिन सड़क पर सोए उन लोगों को शायद सब से पहले एहसास होता होगा शीत काल का.. जब रात की कडाके की ठंड में उनका साथी हमेशा के लिए ऋतुओं के नियमित चक्र से बहुत दूर चला जाता है.

मौसम के तेवरों का पूर्व अनुमान लगाने की जरूरत तो उनको भी होती है जिनके घर की छत टपकती है, या जिनके सर पर छत ही नही होती । अल्पवर्षा अतिवर्षा जैसे शब्दों का जिक्र तो अक्सर  बारिश के मौसम में ही सुनने पढ़ने में आता है, लेकिन कुछ के लिए तो ज़रा सी बारिश ही दुखों की बाढ़ लेकर आ जाती है. प्रकृति के नियमों को बिना विचारे बनाई गयी विकास योजनाओं में अच्छी माली हालत वाले लोगों को भी इसकी चपेट में आने से कोई पूर्व अनुमान भी नहीं बचा सकता है. गुरुग्राम और चैन्नई सहित कई नगरों की पिछली घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है.

ऋतुओं का अच्छा बुरा असर हम सब पर होता है . विज्ञान की देन से आज हम काफी हद तक आने वाले मौसम के बारे में पहले से सचेत भी हो जाते हैं. प्रकृति के अपने नियम  और परम्पराएं होती हैं. हम उसके नियमों को तोड़कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने लगे हैं. इसके परिणाम भी भुगतने को विवश हैं. आखिर हम क्यों नहीं  विपदा आने के पहले से ही बेहतर तैयारी  कर पाते है . अक्सर प्राकृतिक आपदाओ के घट जाने के बाद उनके बारे में सोचने लगते हैं. मन को विचलित करने वाली अनेक तस्वीरें सामने आने लगती हैं. सहानुभूति और आत्म ग्लानि से भरे शब्द सुनाई देने लगते हैं.  हर बार की यही कहानी है. कुछ आपदाओं के होने को हम रोक नहीं सकते पर उस पर नियंत्रण ज़रूर कर  सकते है.
नदी में बाढ़ भूकंपतेज बारिश ओलावृष्टि बादल फटना भूस्खलन बिजली गिरना आदि कई अन्य प्राकृतिक आपदाओं से हर वर्ष हज़ारो लोगों की जान चली जाती है बाद में हज़ारों लोग इस प्राकृतिक आपदा से उपजी बीमारियों से मर जाते है . ऐसे में लगता है कि आज ज़रूरत है इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचने की आखिर कहाँ कमी रह जाती है. कैसे इस पर बेहतर नियंत्रण किया जा सकता है.. ज़रा सोचिये!


एकता कानूनगो बक्षी

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