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Tuesday, July 24, 2018

24 फरवरी 2018 / सुबह सवेरे/ रंग

कविता 
रंग 
एकता कानूनगो बक्षी


मिला जुला रंग था विशाल समुद्र की तरह
जो बन गया था कई नदियो के समागम से
रंगो की कई भिन्न छटाएँ सुंदरता  लिए
दूर तक नज़र आती थी

रंगो का इंद्रधनुष कुछ ऐसा
कि  सौदागरों को लुभाता चला गया सदियो तक

रंगो के मिश्रण से उपजे और कई रंग
जिन्होंने धुंधला कर दिया
इसकी मोहक पृष्ठभूमि को

कुछ रंग मटमैले हो गए
स्वार्थ के लुटेरे लूट ले गए कुछ प्यारे रंग
आज खड़े है दूर दूर  नाराज़ से
छिटके हुए ये रंग व्यथित से

यकीनन सौहार्द का रंग
इन सबको फिर से रंग देगा एक-सा
और कैनवास पर एक बार फिर
उभर  जायेगी धुंधली हो चुकी
वही सुन्दर तस्वीर ।

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