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Monday, March 25, 2019

कविता वो संवाद ( 22 ऑक्टोबर 2018)

आज सुबह सवेरे में मेरी कविता पढ़ें।

कविता
वो संवाद

उफ़!  ये बदबू !
लगता नहीं कि यह घर है
दवाखाना लगता है

जी! यह घर ही है
धीमी आवाज़ में जवाब मिला

कहाँ से ?
चारो तरफ से तो घेर रखा है दवाओं ने
बाहर निकलो!
ज़रा सांस लो खुली हवा में
मिला करो अपनों से ..!

यही तो अपने हैं मेरे..
देखिये! वो छोटी सी लाल लिबास में
खड़ी है शीशे की मेरी दोस्त 
हर लेती है मेरा सारा दर्द

और जब नींद नहीं आती
तो वो दुबला सा लंबे कद का मेरा शुभ चिन्तक
सब संभाल लेता है बिना कुछ कहे 
मेरे साथ ही सोता है
यह मेरा छोटा सा
दर्द हारी बाम

अरे! कैसी बाते कर रहे हो !
परिवार कहाँ है आपका?
इतनी दवाई लेना ठीक नहीं आपके लिए

जी!
परिवार को फुर्सत नहीं अब अपनों से
सबके अपने अपने दुखड़े हैं

दोस्त तो होगा कोई आपका?

दोस्त तो कब के पीछे छूट गए
चले गए अपने नए आशियानों में

आप सही नहीं कर रहे अपने साथ,
बाहर निकलिए इन सब से
खुली हवा में चहल कदमी कीजिये थोड़ी बहुत

जी!आप सही कह रहे
ऐसा ही करूँगा अब
आप आ जाया कीजिये न मुझ से मिलने
अच्छा लगता है !!

 एकता कानूनगो बक्षी

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