आज जनसत्ता में मेरा लेख पढ़ें।
मन की सफाई
एकता कानूनगो बक्षी
वैसे तो हर दिन हम घर की और हमारे आसपास की साफ़-सफाई नियमित रूप से करते रहते है, लेकिन जैसे ही त्योहारों का मौसम आता है हम कुछ अधिक सक्रिय होकर निष्ठा के साथ इस काम में जुट जाते है. इसी समय घर-घर से बेजरूरत का पुराना सामान, अटाला और रद्दी पेपर आदि खरीदने वालों की फेरियां भी खूब लगने लगती है. और सचमुच इन दिनों देखिए न रोज़ की सफाई के बाद भी कितना अटाला , कूड़ा और कचरा निकल ही आता है। जैसे जैसे हम इस कार्य में जुटते हैं बरसों से खोई और गुमशुदा चीजें भी बरामद होने लगतीं हैं. कुछ का हम त्याग कर पाते हैं तो कुछ के मोहपाश में घिर जाते हैं. बहुत सी वस्तुओं से हमारी कई स्मृतियाँ जुडी होती हैं. कुछ को हम जरूरत न होने पर भी सहेज लेना चाहते हैं. ऐसा लगता हैं इन वस्तुओं के संग्रहण से हम कल के लिए कुछ खुशियाँ सुनिश्चित कर लेना चाहते हों.
जब हम घर की सफाई इतनी मुस्तेदी से करते हैं तो हमे एकबार अपने भीतर की व्यवस्था का भी पुनरावलोकन जरूर कर लेना चाहिए । इस के लिए कुछ सवाल खुद से करना आवश्यक होंगे. मसलन क्या हमारे बचपन की मासूमियत, अल्हड़पन, वह निश्छल खिलखिलाहट सहज रूप से उपस्थित है या वह भी अनावश्यक चीजों की भीड़ में कहीं ओझल हो गई है. हमारा शरीर पूरे दिन बिना थके हमारा साथ देता है ? क्या चेहरे पर जो झुर्रियां आ गयी हैं वो उम्र परिपक्वता बयाँ कर रही है या फिर वे चिंताओं के निशान हैं ? क्या आज भी हम कुछ समय उन लोगो के साथ बिता पाते हैं जो लोग हमारे प्रिय हैं, जो हमें निस्वार्थ प्यार करते हैं, जिनके साथ हम सहज रह पाते है ? हर सुबह कुछ नया करने की ललक और जोश के साथ क्या आज भी हम सुबह जाग पा रहे हैं ? उम्र के किसी भी पड़ाव पर हम हों लेकिन ऐसे और कई भावुक और संवेदनापूर्ण सवाल भी हमे खुद से रोज़ पूछते रहना चाहिए और शांति से बैठकर उन पर चिंतन भी करना चाहिए ।
खुद को समझना और खुद से बात करना उतना ही ज़रूरी है जितना जीवन के लिए प्राणवायु ग्रहण करना । उम्र के साथ-साथ हमारे अंदर कई शारीरिक और मानसिक बदलाव आते हैं. ऐसे में नई परिस्थिति के साथ खुद को तैयार करना बेहद ज़रूरी होता है । ज्यों ज्यों हमारे संपर्कों का दायरा बढ़ने लगता है परिणामस्वरूप कई तरह के विचारों और खट्टे मीठे अनुभवों से हमारा सामना होने लगता है। जो आदतें हमारी पहले रहीं होंगी वो नई स्थिति में हो सकता है उपयुक्त न हो । कम उम्र में हमें सबक दिया गया कि जो अपने से बड़े कहे वो बात हमे हर हाल में माननी चाहिए, पर अब समय के साथ हमारे बड़ो में केवल हमारे परिजन और शिक्षक ही नही हैं, अन्य लोग भी शामिल हैं इसलिए अब समझदारी इसी में है कि आदर का भाव सबके साथ रहे,लेकिन पर खुद के विवेक से ही अच्छे-बुरे का हर निर्णय लिया जाए। अब समय जब हमसे ज़िम्मेदारी की अपेक्षा करता है तो उस से घबराने की जगह पूरी ईमानदारी से उसका निर्वाह किया जाना चाहिए।
घर के अटाले के निपटान की तरह ही हमें अपने भीतर की सामग्री का निपटान भी करते रहना चाहिए. बढ़ती उम्र के साथ कुछ चीज़ें त्यागना चाहिए, वहीं कुछ चीज़ों को स्वीकार कर लेना चाहिए। ये तभी सम्भव है जब हम इस बारे में ईमानदारी से विचार करेंगे। अब देखिए जब घर को रोज़ साफ करने पर भी इतना कचरा जमा हो जाता है तो फिर हमारा मस्तिष्क और शरीर कितना कुछ इकट्ठा कर लेता होगा. और फिर विचार तो लगभग अमर ही होते हैं. कुछ गलत इकट्ठा हो गए तो उनसे मुक्ति बड़ी कठिन हो जाती है. मन के विचार ही है जो हमे कमज़ोर या मजबूत बनाते हैं.
हम तो चाहते है हमारा हर दिन उत्सव हो है . इसके लिए हमे दृढ़ता की झाड़ू थाम लेना चाहिए और नष्ट कर देना चाहिए उन विचारों को जो हमारे समय और सेहत को नुकसान पहुचा रहे है. उन लोगो से भी हमे परहेज करना चाहिए जो अपनी नकारात्मकता से हमे कमज़ोर कर रहे हैं, क्योकि असल मे ऐसी कोई भी परीक्षा और कठिन घड़ी नही है जिसपर हम अपने साहस,मेहनत और विवेक के बल हम फतह हासिल ना कर सके । नकारात्मकता दीमक की तरह है जो सब कुछ नष्ट कर देती है। हमे उसे अपने पास भी नही फटकने देना चाहिए।
सफाई के साथ साथ हमे इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि हम किन चीज़ों को अपने जीवन मे जगह दे रहे हैं, ये सब हमारे भविष्य की खुशहाली को निश्चित करते हैं या नहीं? कहा भी गया है सही संगत और अच्छे साहित्य को अपने जीवन में जगह देनी चाहिए। नकारात्मकता का कूढा हमें कमज़ोर करके खत्म कर देता है खुद को समझना और मन की नियमित सफाई करना बेहद आवश्यक है।
इसलिये ये बहुत ज़रूरी है कि हम अपने भीतर की व्यवस्था का रखरखाव और साफ़-सफाई पर भी पर्याप्त ध्यान देते रहें. जिन्हें सहेजकर जीवन सुखी होता हो उन्हें रखकर भीतर के अटाले का भी त्याग करने में ही हमारा भला है।
http://epaper.jansatta.com/m5/1876177/Jansatta/30-October-2018#page/6/1
मन की सफाई
एकता कानूनगो बक्षी
वैसे तो हर दिन हम घर की और हमारे आसपास की साफ़-सफाई नियमित रूप से करते रहते है, लेकिन जैसे ही त्योहारों का मौसम आता है हम कुछ अधिक सक्रिय होकर निष्ठा के साथ इस काम में जुट जाते है. इसी समय घर-घर से बेजरूरत का पुराना सामान, अटाला और रद्दी पेपर आदि खरीदने वालों की फेरियां भी खूब लगने लगती है. और सचमुच इन दिनों देखिए न रोज़ की सफाई के बाद भी कितना अटाला , कूड़ा और कचरा निकल ही आता है। जैसे जैसे हम इस कार्य में जुटते हैं बरसों से खोई और गुमशुदा चीजें भी बरामद होने लगतीं हैं. कुछ का हम त्याग कर पाते हैं तो कुछ के मोहपाश में घिर जाते हैं. बहुत सी वस्तुओं से हमारी कई स्मृतियाँ जुडी होती हैं. कुछ को हम जरूरत न होने पर भी सहेज लेना चाहते हैं. ऐसा लगता हैं इन वस्तुओं के संग्रहण से हम कल के लिए कुछ खुशियाँ सुनिश्चित कर लेना चाहते हों.
जब हम घर की सफाई इतनी मुस्तेदी से करते हैं तो हमे एकबार अपने भीतर की व्यवस्था का भी पुनरावलोकन जरूर कर लेना चाहिए । इस के लिए कुछ सवाल खुद से करना आवश्यक होंगे. मसलन क्या हमारे बचपन की मासूमियत, अल्हड़पन, वह निश्छल खिलखिलाहट सहज रूप से उपस्थित है या वह भी अनावश्यक चीजों की भीड़ में कहीं ओझल हो गई है. हमारा शरीर पूरे दिन बिना थके हमारा साथ देता है ? क्या चेहरे पर जो झुर्रियां आ गयी हैं वो उम्र परिपक्वता बयाँ कर रही है या फिर वे चिंताओं के निशान हैं ? क्या आज भी हम कुछ समय उन लोगो के साथ बिता पाते हैं जो लोग हमारे प्रिय हैं, जो हमें निस्वार्थ प्यार करते हैं, जिनके साथ हम सहज रह पाते है ? हर सुबह कुछ नया करने की ललक और जोश के साथ क्या आज भी हम सुबह जाग पा रहे हैं ? उम्र के किसी भी पड़ाव पर हम हों लेकिन ऐसे और कई भावुक और संवेदनापूर्ण सवाल भी हमे खुद से रोज़ पूछते रहना चाहिए और शांति से बैठकर उन पर चिंतन भी करना चाहिए ।
खुद को समझना और खुद से बात करना उतना ही ज़रूरी है जितना जीवन के लिए प्राणवायु ग्रहण करना । उम्र के साथ-साथ हमारे अंदर कई शारीरिक और मानसिक बदलाव आते हैं. ऐसे में नई परिस्थिति के साथ खुद को तैयार करना बेहद ज़रूरी होता है । ज्यों ज्यों हमारे संपर्कों का दायरा बढ़ने लगता है परिणामस्वरूप कई तरह के विचारों और खट्टे मीठे अनुभवों से हमारा सामना होने लगता है। जो आदतें हमारी पहले रहीं होंगी वो नई स्थिति में हो सकता है उपयुक्त न हो । कम उम्र में हमें सबक दिया गया कि जो अपने से बड़े कहे वो बात हमे हर हाल में माननी चाहिए, पर अब समय के साथ हमारे बड़ो में केवल हमारे परिजन और शिक्षक ही नही हैं, अन्य लोग भी शामिल हैं इसलिए अब समझदारी इसी में है कि आदर का भाव सबके साथ रहे,लेकिन पर खुद के विवेक से ही अच्छे-बुरे का हर निर्णय लिया जाए। अब समय जब हमसे ज़िम्मेदारी की अपेक्षा करता है तो उस से घबराने की जगह पूरी ईमानदारी से उसका निर्वाह किया जाना चाहिए।
घर के अटाले के निपटान की तरह ही हमें अपने भीतर की सामग्री का निपटान भी करते रहना चाहिए. बढ़ती उम्र के साथ कुछ चीज़ें त्यागना चाहिए, वहीं कुछ चीज़ों को स्वीकार कर लेना चाहिए। ये तभी सम्भव है जब हम इस बारे में ईमानदारी से विचार करेंगे। अब देखिए जब घर को रोज़ साफ करने पर भी इतना कचरा जमा हो जाता है तो फिर हमारा मस्तिष्क और शरीर कितना कुछ इकट्ठा कर लेता होगा. और फिर विचार तो लगभग अमर ही होते हैं. कुछ गलत इकट्ठा हो गए तो उनसे मुक्ति बड़ी कठिन हो जाती है. मन के विचार ही है जो हमे कमज़ोर या मजबूत बनाते हैं.
हम तो चाहते है हमारा हर दिन उत्सव हो है . इसके लिए हमे दृढ़ता की झाड़ू थाम लेना चाहिए और नष्ट कर देना चाहिए उन विचारों को जो हमारे समय और सेहत को नुकसान पहुचा रहे है. उन लोगो से भी हमे परहेज करना चाहिए जो अपनी नकारात्मकता से हमे कमज़ोर कर रहे हैं, क्योकि असल मे ऐसी कोई भी परीक्षा और कठिन घड़ी नही है जिसपर हम अपने साहस,मेहनत और विवेक के बल हम फतह हासिल ना कर सके । नकारात्मकता दीमक की तरह है जो सब कुछ नष्ट कर देती है। हमे उसे अपने पास भी नही फटकने देना चाहिए।
सफाई के साथ साथ हमे इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि हम किन चीज़ों को अपने जीवन मे जगह दे रहे हैं, ये सब हमारे भविष्य की खुशहाली को निश्चित करते हैं या नहीं? कहा भी गया है सही संगत और अच्छे साहित्य को अपने जीवन में जगह देनी चाहिए। नकारात्मकता का कूढा हमें कमज़ोर करके खत्म कर देता है खुद को समझना और मन की नियमित सफाई करना बेहद आवश्यक है।
इसलिये ये बहुत ज़रूरी है कि हम अपने भीतर की व्यवस्था का रखरखाव और साफ़-सफाई पर भी पर्याप्त ध्यान देते रहें. जिन्हें सहेजकर जीवन सुखी होता हो उन्हें रखकर भीतर के अटाले का भी त्याग करने में ही हमारा भला है।
http://epaper.jansatta.com/m5/1876177/Jansatta/30-October-2018#page/6/1
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