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Monday, March 25, 2019

कठपुतली बनते हम ( 6 दिसंबर 2018 जनसत्ता )

आज जनसत्ता में मेरा लेख पढ़ें।

कठपुतली बनते हम
एकता कानूनगो बक्षी

कठपुतलियों का खेल हमारे देश ही नहीं पूरी दुनिया में सदियों से चला आ रहा है और आज भी खासा लोकप्रिय है। बच्चों के साथ साथ बड़े भी बड़ी रूचि के साथ इसका लुत्फ़ उठाते हैं। किस्से कहानियों से लेकर तात्कालिक वातावरण और दर्शकों की रुचि को ध्यान में रखकर कलाकार नए खेल और कठपुतलियों के स्वांग रचता है। यह सब देखने में तो बहुत सहज,सरल लगता है लेकिन इस प्रदर्शन में सफल वही कलाकार हो पाता है जो काफी शोध, सोचविचार करके खेल या नाटक की कथा बनाता है  और देश काल और परिस्थिति के अनुकूल अपनी कठपुतलियों की साज-सज्जा और श्रृंगार करके हम सब के सामने प्रस्तुत करता है । यहां यह भी गौर करने की बात है कि हर दिन एक जैसा नाटक करने वाला बहुत जल्दी अपने दर्शकों को खो देता है।  वहीं हर बार नई कहानी और नए किरदारों को गढ़ने वाला कलाकार अपने खेल में आकर्षण बनाये रखने में सफल होता है। जहां तक इस मनोरंजक प्रदर्शन की बात है, कठपुतलियों का ये पुराना करतब हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है और इसे इसी खूबसूरती और गरिमा के साथ हमेशा बने रहना चाहिए आने वाली पीढ़ी के लिए।

कठपुतलियों की बात होते ही निश्चित ही सबका ध्यान उन पुतलियों की और जाता है जो काठ याने लकड़ी की बनी होती हैं। साज सज्जा और श्रृंगार के बाद वे लगभग हम मनुष्यों की ही तरह नजर आने लगती है जबकी उसे संचालित करने वाला कोई और व्यक्ति होता  है। कठपुतली मस्तिष्क विहीन होती है उसके पास बुद्धि नही होती। और यही सबसे बड़ा अंतर होता है हम में और किसी कठपुतली में। लेकिन यह विडम्बना है कि न चाहते हुए भी हम अक्सर कठपुतली बन जाते हैं या बना दिये जाते हैं. निश्चित ही इसका कारण हममें विवेकशीलता की कमी, व्यावहारिक समझ का अभाव,पर्याप्त साहस की बजाए अनजाने जोखिम का डर या फिर जल्दी से जल्दी सुविधा प्राप्त करने और अपने काम को शीघ्रता से अंजाम देने की हड़बड़ी भी हो सकता है।

कई परिस्थितियों में हमारा आचरण भी काफी हद तक कठपुतली के समान ही हो जाता है।
अब देखिए अगर हम अपने घर से ही शुरू करें तो किचन में ही किस तरह से हम कठपुतली के खेल में शामिल हो गए हैं। पहले हमारे हाथो में स्टील , पीतल ,मिट्ठी के बर्तन, रोटी को लपेटने के लिए मलमल का कपड़ा , हमारे क्षेत्र में उत्पादित होने वाले स्थानीय फल सब्जियां, अनाज, दालें , घी, तेल  ऐसी सामग्री जो हमे सुलभ तरीके से प्राप्त हो जाती थी और जिनके प्रयोग से हम स्वस्थ भी रहते थे।  फिर अचानक किसी कलाकार ने दृश्य बदल दिया और हमारे हाथ मे प्लास्टिक , नॉनस्टिक , एल्युमीनियम फॉयल , एयर फ्रायर नए तरह के अनाज, दूरदराज से लाई एक्सोटिक सब्जियों और फलों ने ले ली.  घी का सेवन तक हानिकारक हो गया, और खाद्य तेलों की विभिन्न ब्रांडों की बोतलों के साथ हम किचन के सेट वाले स्टेज पर कठपुतलियों की तरह किसी और के इशारों पर डोलने लगे। लंबे समय तक यही दृश्य चलता रहा और फिर अचानक किसी स्वास्थ्य रक्षा की चेतावनी के विज्ञापन के साथ पुरानी परम्पराओं को अपनाने के लिए फिर नया स्क्रिप्ट लिख दिया गया। मिट्टी सहित पुराने बर्तनों और प्राकृतिक और ओरगेनिक सामग्री के उपयोग के सन्देश वाली कहानियों पर मानवीय पुतलियाँ नृत्य करने लगीं. जो एंटिक की तरह महँगा सौदा बन गया।

पहले हम नीम की डाली से दातुन किया करते थे और नमक और सरसों का उपयोग भी दांत की सफाई के लिए करते थे। फिर पाउडर से अपने दांत मांजने लगे, फिर टूथपेस्ट आया। नए रंगों और नए स्वाद में.  उसमे लौंग और नमक भी डाला गया और हम कठपुतलियां बहुत खुश होती गईं.  इन दिनों नीम का दातुन भी ऑनलाइन मिलने लगा है....यह अलग बात है कि एक नीम का पेड़ अभी भी रोड़ किनारे खडा मुस्कुराता रहता है।

सौंदर्य प्रसाधन के क्षेत्र में तो और भी मूर्खताओं के साथ हम इस खेल में शामिल होते गए हैं।  हमारे पूर्वज और उस जमाने के लोग चाहे वह सम्राट रहे हों या अनन्य सुंदरियां और आम स्त्री-पुरुष खूबसूरती और तंदुरुस्ती बनाये रखने  के लिए जो नुस्खे आजमा रहे थे उनको हमने आउटडेटेड मानकर भुला दिया और नए जमाने के महंगे कास्मेटिकस को अपनाकर हम क्या मात्र कठपुतली नहीं हो गए हैं? जिनकी डोर किन्ही और चतुर उत्पादकों और व्यापारियों की हाथों में है।  जबकि यह खेल भी स्थायी नहीं होता। क्षणिक दृश्य उपस्थित होता है। इसकी भी उतनी ही आयु होती है, थोड़े समय में ही इन कास्मेटिक का विपरीत असर जब दिखने लगता है तो मार्केट में इन्हें ठीक करने के नए प्रोडक्ट्स आ जाते है। फिर भी बात नही बनती तो विज्ञापन की तस्वीरों में फिल्टर्स एप्प काम करने लगते हैं। जो आपकी चेहरे की कमियों को पूरी तरह से छुपाने का दावा करने लगते हैं। बस इसके बाद अगला दृश्य आता है जिसमे आपके हाथों में एक टयूब होती है जिसमे वही उबटन मौजूद होता है जो आपने खुद से दूर कर दिया था आउटडेटेड समझ के।

 ये तो मात्र कुछ दृश्य हैं इसके अलावा भी हमने अपने इस जीवननाट्य में कठपुतली का किरदार निभाया है. बाजार और बाजारवाद की उँगलियों से शायद हम इस कदर संचालित किये जा रहे हैं कि समझ ही नहीं पा रहे कि हम कठपुतली नहीं मनुष्य हैं जिसे बुद्धि और समझ का उपहार जन्म के साथ प्राप्त हुआ है. हमारी आस्था और विश्वास यहां तक कि हमारी भाषा, विचार, और शिष्टाचार पर भी इसका गहरा असर आया है। एक तरह से हमारा व्यवहार और आचरण भेड़ों के समूह की तरह हो गया है. एक ऐसे सामूहिक गान का हिस्सा होते जा रहे हैं हम, जिसमें आँख बंद करके सबके सुर में सुर मिलाना ही श्रेष्ठ माना जा रहा. दुखद है कि हमे इससे ही सुख मिलने लगा है. जबकि ये हमारे लिए नुकसानदायक स्थिति है। यह स्थिति निजी तौर पर हमारी मौलिकता की भक्षक है। इस तरह की वैचारिक शून्यता एक तरह की नई प्रजाति को जन्म दे रही है जिनका उपयोग लगभग उसी तरह हो रहा  जैसे किसी प्रयोगशाला में जीव-जंतुओं के साथ किया जाता रहा है।

बेचने वाले से ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी उपभोगकर्ताओं की है कि किन चीज़ों का स्वागत करना है और किन्हें छोड़ देना ही बेहतर होगा।

हम कितने ही आधुनिक क्यों न बन जाये , पर अपनी जड़ों से जुड़े रहने से ही हमारा पोषण होगा. चाहे किसी नई वस्तु की बात हो  या नए विचारो की, विवेक,समझ और साहस के साथ उसका पूरा आकलन करना बेहद ज़रूरी है  ताकि भविष्य में ईमानदार संभावनाओं को  सही आयाम मिले और अपने फायदे के लिए हमे कोई कठपुतली न बना सके।

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